महाराजा रायसिंह व उनके उत्तराधिकारियों का इतिहास

महाराजा रायसिंह व उनके उत्तराधिकारियों का इतिहास

आज हम बीकानेर राज्य के राठौड़ वंश में महाराजा रायसिंह व उनके उत्तराधिकारियों का इतिहास की बात करेंगे ।

महाराजा रायसिंह ( 1574-1612 ई.)

  • महाराजा रायसिंह का जन्म 20 जुलाई 1541 को हुआ और अपने पिता राव कल्याणमल का देहांत होने पर 1574 ई. में वे बीकानेर के शासक बने ।
  • उन्होंने अपनी उपाधि ‘महाराजा‘ और ‘महाराधिराज‘ रखी ।
  • मुगल दरबार में आमेर के कछवाहों के बाद बीकानेर के राठौड़ों का ही अधिक विश्वास एवं सम्मान किया जाता था ।
  • महाराजा रायसिंह को अकबर तथा जहाँगीर दोनों का विश्वास प्राप्त था ।
  • महाराजा रायसिंह को अकबर के साम्राज्य का एक सुदृढ़ स्तंभ कह सकते हैं ।

जोधपुर का प्रशासक :- 1572 ईस्वी में अकबर ने कुँवर रायसिंह को जोधपुर का प्रशासक नियुक्त किया । वहाँ उनका 3 वर्ष तक अधिकार रहा ।

कठौली की लड़ाई ( 1573) :- गुजरात के मिर्जा बंधुओं के विद्रोह का दमन करने हेतु भेजी गई शाही सेना में रायसिंह भी थे । इब्राहीम हुसैन मिर्जा का पीछा करते हुए शाही सेना ने रायसिंह के नेतृत्व में उसे कठौली नामक स्थान पर घेर लिया , जहाँ वह पराजित होकर पंजाब की तरफ भाग गया ।

राव चंद्रसेन पर चढ़ाई :- जोधपुर के राव चंद्रसेन ने जोधपुर व भाद्राजूण पर मुगल सेना का अधिकार हो जाने के बाद सिवाणा को अपना ठिकाना बना लिया था । सम्राट अकबर ने रायसिंह के नेतृत्व में सिवाणा के गढ़ पर अधिकार करने के लिए 15 74 ईसवी में अपनी सेना भेजी । शाही सेना ने सोजत का किला जीता एवं फिर सिवाणा पर घेरा डाला । चंद्रसेन राठौड़ पत्ता व मुहंता पत्ता के अधिकार में गढ़ छोड़कर चले गए , बाद में शाहबाज खाँ के नेतृत्व में शाही सेना ने सिवाणा के गढ़ पर अधिकार किया ।

देवड़ा सुरताण का दमन :- 1576 ई. में जालौर के ताज खाँ एवं सिरोही के सुरताण देवड़ा के विद्रोह का दमन करने हेतु रायसिंह के नेतृत्व में शाही सेना भेजी गई । ताज खाँ एवं सुरताण ने रायसिंह के समक्ष उपस्थित होकर बादशाह की अधीनता स्वीकार कर ली ।

रायसिंह का गुजरात अभियान :- गुजरात में मिर्धा बंधुओं ने पुन: विद्रोह कर दिया । सम्राट अकबर स्वयं विद्रोह दबाने गए । महाराजा रायसिंह भी अकबर के साथ थे । हुसैन मिर्जा से हुए युद्ध में मुगलों की विजय हुई । हुसैन मिर्जा को बंदी बनाकर राजा रायसिंह की अभिरक्षा में रख दिया । हुसैन मिर्जा को छुड़ाने के लिए उसके सहयोगी इख्तियारूल-मुल्क ने आक्रमण किया । इस संघर्ष के दौरान राजा भगवंत दास के इशारे पर रायसिंह ने हुसैन मिर्जा को मौत के घाट उतार दिया ।

रायसिंह का काबुल में जाना :- 1581 में अकबर के सौतेले भाई हकीम मिर्जा,जो काबुल का शासक था , ने भारत पर विजय करनी चाही । तब इस स्थिति में अकबर ने मानसिंह व रायसिंह के साथ शाहजादे मुराद को भेजा व फिर स्वयं भी गया तथा काबुल पर अधिकार किया ।

  • महाराजा रायसिंह 1583 ईस्वी में सिरोही के स्वामी सुरताण से सिरोही का आधा राज्य लेकर बादशाह को दिया ।
  • रायसिंह को 1586 में बादशाह अकबर ने राजा भगवंत दास के साथ लाहौर में नियुक्त किया था ।
  • ‘कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकं काव्य’ में इन्हें ‘राजेंद्र’ कहा है ।
  • मुंशी देवीप्रसाद ने उन्हें ‘राजपूताने का कर्ण’ (दूसरा कर्ण) कहा ।
  • महाराजा रायसिंह के समय बीकानेर में रहकर जैन साधु ज्ञान विमल ने 25 जून 1598 को महेश्वर के ‘शब्दभेद‘ की टीका समाप्त की थी
  • महाराजा रायसिंह में ‘रायसिंह महोत्सव‘ व ‘ज्योतिष रत्नाकर‘ नामक दो अमूल्य ग्रंथ लिखे । इसके अलावा उन्होनें “वैधक वंशावली’ व ‘बाल बोधिनी’ की रचना भी की ।
  • महाराजा रायसिंह की मृत्यु 22 जनवरी 1612 ईस्वी को बुरहानपुर में हुई ।

महाराजा रायसिंह के निर्माण कार्य :-

  • महाराजा जयसिंह ने 17 फरवरी 1589 को बीकानेर में जूनागढ़ किले की नींव रखी । यह दुर्ग 17 जनवरी 1594 को बनकर तैयार हुआ । यह काम मंत्री कर्मचंद्र के निरीक्षण में हुआ । इसी गढ़ में ‘रायसिंह प्रशस्ति‘ (जूनागढ़ प्रशस्ति) भी लगवाई गई ।
  • संस्कृत भाषा की ‘रायसिंह प्रशस्ति’ के रचयिता जइता नामक जैन मुनि थे ।
  • जूनागढ़ दुर्ग का प्रवेश द्वार कर्णपोल है । उसके आगे के दरवाजे में एक सूरजपोल हैं जिसके दोनों पार्श्वों पर जयमल मेड़तिया और पत्ता चुंडावत की मूर्तियां स्थापित है ।
  • जूनागढ़ दुर्ग में राजाओं के बनवाए स्थानों में महाराजा रायसिंह का चौबारा, महाराजा गजसिंह के फूल महल , चंद्रमहल , गज मंदिर तथा कचहरी , महाराजा सरदारसिंह का बनवाया हुआ रत्न निवास और महाराजा डूंगरसिंह के छत्रमहल , चीनी बुर्ज , गणपति निवास, गंगा निवास, सोहन बुर्ज, सुनहरी बुर्ज और कोठी है । यहाँ महाराजा गंगासिंह ने दलेल निवास व गंगा निवास नामक विशाल हॉल बनवाए ।
  • जूनागढ़ किले में ही बीकानेर राज्य के उत्तरी भाग के रंग महल , बड़ोपल आदि से प्राप्त हुई मिट्टी की बनी बहुत प्राचीन वस्तुओं का एक बड़ा संग्रह है जिसका श्रेय स्व. डॉ टैस्सिटोरी को है ।

महाराजा दलपतसिंह ( 1612-13 ई.)

महाराजा रायसिंह के ज्येष्ठ कुंवर दलपत सिंह का जन्म 24 जनवरी 1565 को हुआ । दलपत सिंह के ज्येष्ठ होने पर भी अपनी भटियानी रानी गंगा पर विशेष प्रेम होने के कारण रायसिंह ने उसके पुत्र सूरसिंह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया , लेकिन बादशाह जहाँगीर ने दलपत सिंह को 28 मार्च 1612 को बीकानेर का राजा बना दिया । 1613 ई. में साम्राज्य विरोधी आचरण करने पर सम्राट जहाँगीर ने उसे मृत्यु दंड दिया ।

महाराजा सूरसिंह (1613-1631 ई.)

  • महाराजा रायसिंह के दूसरे कुंवर सूरसिंह का जन्म 28 नवंबर 1594 में हुआ । बादशाह जहाँगीर की आज्ञा से अपने बड़े भाई दलपतसिंह को परास्त कर 1613 ई. में बीकानेर की गद्दी पर बैठे ।
  • महाराजा सूरसिंह का देहांत बुरहानपुर में बौहरी गाँव में 15 सितंबर 1631 को हो गया ।
  • महाराजा सूरसिंह ने ‘सूरसागर’ बनवाया ।

महाराजा कर्णसिंह ( 1631-1669 ई.)

  • महाराजा सूरसिंह की मृत्यु होने पर उनके जेष्ठ पुत्र कर्ण सिंह 13 अक्टूबर 1631 को बीकानेर की गद्दी पर बैठे । उस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह शाहजहाँ का शासन था ।
  • इन्हें औरंगजेब ने ‘जांगलधर बादशाह‘ की उपाधि से नवाजा ।
  • महाराजा कर्ण सिंह का 22 जून 1669 को देहान्त हो गया ।

साहित्य व रचनाएं :-

(१) साहित्य कल्पद्रुम :- कर्णसिंह द्वारा कृत ।

(२) कर्णभूषण व काव्य डाकिनी :- पंडित गंगा नंद मैथिल द्वारा रचित ।

(३) कर्ण संतोष :- कवि मुद्नल कृत ।

(४) कर्णवतंस :- होसिक भट्ट कृत ।

(५) वृतसारावली

महाराजा अनूपसिंह ( 1669-1698 ई.)

  • महाराजा कर्णसिंह के जेष्ठ पुत्र अनूपसिंह का जन्म 11 मार्च 1638 को हुआ था । अपने पिता की मृत्यु के बाद 1669 ई. को बीकानेर की गद्दी पर बैठे ।
  • इन्होंने औरंगजेब के साथ दक्षिण भारत के अभियान में भाग लिया ।
  • बादशाह औरंगजेब की तरफ से इन्हें ‘माही मरातिब‘ व ‘महाराजा’ की उपाधि दी गई ।
  • महाराजा अनूपसिंह ने 1678 ई. अनूपगढ़ दुर्ग बनवाया ।
  • महाराजा अनूपसिंह ने ‘अनोपसागर’ (चौतानी) कुआँ बनवाया ।
  • इन्होंने दक्षिण भारत से अनेक मूर्तियां ले कर आये और उन्हें बीकानेर के ‘33 करोड़ देवताओं‘ के मंदिर में रखा गया ।
  • महाराजा अनूपसिंह को विद्वानों का जन्मदाता कहा जाता है ।

महाराजा अनूपसिंह द्वारा रचित ग्रंथ :-

  • विवेक चिंतामणि , काम प्रबोध , श्राद्ध प्रयोग , अनूपोदय, अनूप विवेक , अनूप रत्नाकर , कौतुक सारोद्धारा और संगीतानूपराग ।

ज्योत्पत्तिसार ➡ वेद्यनाथ सूरी द्वारा रचित ।

अमित व्यवहार सागर ➡ मणिराम दीक्षित ।

अयुतलक्षहोमकोटि प्रयोग ➡ भद्रराम ।

तीर्थ रत्नाकार ➡ अनंत भट्ट ।

पाण्डित्यद्रर्पण ➡ श्वेताम्बर उदयचंद्र ।

  • महाराजा अनूपसिंह ने अपने पिता के राज्य काल में ही ‘शुकसारिका‘ (सुआ बहोत्तरी) की 72 कथाओं का भाषा अनुवाद करवाया ।
  • इनके राज्य काल में ‘बेताल पच्चीसी’ की कथाओं का कविता मिश्रित मारवाड़ी गद्य में अनुवाद हुआ और जोशीराय ने ‘शुकसारिका’ की कथाओं का संस्कृत तथा मारवाड़ी कविता मिश्रित मारवाड़ी गद्य में ‘दंपतविनोद’ नाम से अनुवाद किया ।
  • महाराजा अनूपसिंह के आश्रय में ही उसके कार्यकर्ता नाजर आनंदराम ने श्रीधर की टीका के आधार पर गीता का गद्य और पद्य दोनों में अनुवाद किया ।
  • इनके काल को बीकानेर ‘चित्रकला शैली का स्वर्णकाल’ कहा जाता है ।
  • महाराजा अनूपसिंह के दरबार में शाहजहाँ के दरबार के प्रसिद्ध संगीतचार्य जनार्दन भट्ट के पुत्र ‘भाव भट्ट’ आए , जिन्होनें वहाँ रहकर ‘संगीतअनूपांकुश’, ‘अनुपसंगीत विलास’, ‘अनूपसंगीत रत्नाकर’, ‘नष्ठोद्दिष्ट प्रबोधकध्रौपद टीका’ आदि ग्रंथों की रचना की ।
  • महाराजा अनूप सिंह ने बीकानेर के जूनागढ़ दुर्ग में ‘अनूप संस्कृत पुस्तकालय’ (सादुल निवास) की स्थापना की । वर्तमान में यह लाइब्रेरी लालगढ़ पैलेस में है । मेवाड़ के महाराणा कुंभा के बनाए गए संगीत ग्रंथों का पूरा संग्रह बीकानेर के इस पुस्तक भंडार में विद्यमान है ।
  • महाराजा अनूपसिंह का 8 मई, 1698 ई. को आदूणी (दक्षिण ) में देहांत हो गया ।

महाराजा स्वरूप सिंह ( 1698-1700 ई.)

महाराजा अनूपसिंह जेष्ठ पुत्र स्वरूप सिंह का जन्म 23 जुलाई 1869 को हुआ था । पिता की मृत्यु के समय वह आदूणी में ही था और वहीं 9 वर्ष की अवस्था में उनकी गद्दीनशीनी हुई । आरंभ से ही वे औरंगाबाद और बुरहानपुर में बादशाह के प्रतिनिधि की हैसियत से कार्य करते रहे । बीकानेर में राज्य कार्य स्वरूप सिंह की माता सिसोदणी चलाती थी । महाराजा स्वरूप सिंह का देहांत 15 दिसंबर 1700 को हो गया ।

महाराजा सुजान सिंह ( 1700-1735 ई.)

  • महाराजा स्वरूप सिंह के छोटी अवस्था में ही नि:संतान मर जाने पर उनके छोटे भाई सुजान सिंह 1700 ई. में बीकानेर के शासन बने ।
  • महाराजा सुजान सिंह दक्षिण में ही रहे व बीकानेर का राज्य कार्य मंत्री और अन्य सरदार करते रहे । ऐसे समय में जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह की सेना ने बीकानेर पर चढाई की , लेकिन भूकरका के पृथ्वीराज मलसीसर के बीदावत हिंदूसिंह (तेजसिंहोत) ने सेना एकत्रकर जोधपुर की सेना का डटकर मुकाबला किया ।
  • महाराजा सुजान सिंह का 16 दिसंबर 1735 ई. को रायसिंहपुरा में देहांत हो गया ।
  • ‘वरसलपुर विजय’ (महाराजा सुजानसिंह रो रासो) की रचना मथेरण जोगीदास ने की ।

महाराजा जोरावरसिंह ( 1736-1746 ई.)

  • जोरावर सिंह का जन्म 14 जनवरी 1713 हुआ था और वे 24 फरवरी 1736 को बीकानेर के सिंहासन पर बैठे ।
  • जोरावर सिंह की राजमाता सीसोदिणी ने बीकानेर में चतुर्भुज का मंदिर बनवाया ।
  • 15 मई 1746 को जोरावर सिंह का नि:संतान देहांत हो गया ।
  • महाराजा जोरावर सिंह ने संस्कृत ग्रंथ ‘वैद्यसार’ और ‘पूजापद्धति’ की रचना की ।

महाराजा गजसिंह ( 1746-1787 ई.)

  • महाराजा जोरावर सिंह के बाद महाराजा गजसिंह (जोरावर सिंह के भाई आनंद सिंह के छोटे पुत्र ) बीकानेर के सिंहासन पर बैठे ।
  • 1752 ई. को बादशाह अहमदशाह की तरफ से ‘श्री राजराजेश्वर महाराजाधिराज महाराजाशिरोमणि’ का खिताब और ‘माही मरातिब’ का सम्मान भी मिला था ।
  • महाराजा गजसिंह के काल में 1753 ईस्वी में बीदासर के निकट दड़ीबा गांव में तांबे की खान का पता चला था ।
  • महाराजा गजसिंह के शासनकाल में चारण गाडण गोपीनाथ ने ‘महाराजा गजसिंहजी रौ रूपक’ नामक काव्य ग्रंथ की रचना की थी ।
  • 1757 में गजसिंह ने नौहरगढ़ की नींव रखी जो 1760 ई. में बनकर तैयार हुआ ।
  • 25 मार्च 1787 को महाराजा गजसिंह का देहांत हो गया ।
  • महाराजा गजसिंह के देहांत के बाद महाराजा राजसिंह 4 अप्रैल 1787 को बीकानेर की गद्दी पर बैठे । 25 अप्रैल 1787 को महाराजा राजसिंह का देहांत हो गया । अपनी अनन्य भक्ति के कारण उनके साथ उनके विश्वासपात्र सेवक मंडलावत संग्राम सिंह ने उनकी चिता में प्रवेश कर अपने प्राणों का त्याग किया था ।
  • राजसिंह के पश्चात प्रताप सिंह 6 मई, 1787 को बीकानेर के स्वामी बने , लेकिन बहुत कम समय तक उनका राज्य रहा ।

महाराजा सूरतसिंह ( 1787-1828 ई.)

  • महाराजा सूरत सिंह का जन्म 18 दिसंबर 1765 को हुआ और वे 21 अक्टूबर 1787 को बीकानेर के सिंहासन पर बैठे ।
  • 1799 ईस्वी में सूरतसिंह ने गांव सोडल में सूरतगढ़ का निर्माण कराया । यह गढ़ कुंभाणा के ठाकुर की मार्फत भट्टियों से मिलकर बनवाया गया था ।
  • सूरतसिंह ने बीगोर में फतहगढ़ नामक एक गढ़ भी बनवाया ।
  • इनके शासनकाल में जॉर्ज टॉमस (जाझ फिरंगी) ने दो बार बीकानेर पर चढ़ाई की ।
  • 1805 ईसवी में अमरचंद्र सुराणा के नेतृत्व में बीकानेर राज्य का भटनेर पर अधिकार हुआ और इसका नाम हनुमानगढ़ रख दिया ।
  • 11 मार्च 1807 को गिंगोली के युद्ध में बीकानेर और जयपुर की सम्मिलित सेना ने जोधपुर की सेना को हराया था । उसमें बीकानेर के महाराजा सूरत सिंह साथ में थे ।
  • 9 मार्च 1818 को चार्ल्स मेटकॉफ व बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह की ओर से ओझा काशीनाथ ने अंग्रेजों से संधि की ।
  • 24 मार्च 1828 को महाराजा सूरतसिंह का स्वर्गवास हो गया ।

दीपकुँवरी :- महाराजा सूरतसिंह के पुत्र मोतीसिंह की पत्नी , जो मोतीसिंह के देहांत हो जाने पर सती हुई थी । ये बीकानेर के राज्य परिवार में आखरी सती थी , जिनके स्मरणार्थ बीकानेर में देवीकुंड पर प्रतिवर्ष मेला लगता है ।

महाराजा रत्नसिंह ( 1828-1851 ई.)

  • महाराजा सूरतसिंह के जेष्ठ पुत्र महाराजा रत्नसिंह का जन्म 30 दिसंबर 1790 को हुआ था और 5 अप्रैल 1828 को बीकानेर के सिंहासन पर बैठे ।
  • बीकानेर व जैसलमेर के मध्य वासणपी गाँव के पास 1829 में युद्ध हुआ जिसमें जैसलमेर विजय रहा ।
  • महाराजा रत्न सिंह को बादशाह अकबर द्वितीय ने ‘माही मरातिब‘ का खिताब दिया ।
  • 1844 ई. बीकानेर रियासत में कन्याओं को न मारने की ‘आण’ (शपथ) जारी की ।
  • 1844 ई. में आंग्ल-अफगान व प्रथम एवं द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध में अंग्रेजो की सहायता की ।
  • इन्होंने बीकानेर में रतन बिहारी मंदिर का निर्माण करवाया ।
  • 7 अगस्त 1851 को महाराजा रत्नसिंह का बीकानेर में देहांत हो गया ।
  • ‘रतन विलास’ की रचना बीठू भोमा ने की ।
  • ‘रतनरूपक’ ग्रंथ की रचना कविया सागरदान करणीदानोत ने की ।

महाराजा सरदारसिंह ( 1851-1872 ई.)

  • महाराजा सरदार सिंह का जन्म 13 सितंबर 1818 को हुआ था और अपनी पिता महाराजा रत्नसिंह की मृत्यु के बाद 19 अगस्त 1851 को वे बीकानेर के शासक बने ।
  • महाराजा सरदारसिंह ने 1854 ईसवी में सती प्रथा और जीवित समाधि प्रथा बंद करवाई । उस समय राजपूताना के एजीजी कर्नल सर हेनरी लॉरेंस थे ।
  • 1857 ईसवी की क्रांति महाराजा सरदार सिंह के समय हुई । राजस्थान के शासकों में ये एकमात्र शासक थे जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से क्रांति के दमन में सक्रिय भाग लिया ।
  • 1868 ई. में सुजानगढ़ में अंग्रेजी एजेंसी की स्थापना की गई ।
  • महाराजा सरदारसिंह का 16 मई 1872 को निधन हो गया ।
  • महाराजा सरदार सिंह ने बीकानेर में रसिक शिरोमणि का मंदिर बनवाया और राजलवाड़ा गाँव के स्थान पर सरदारशहर कस्बा (वर्तमान में चुरू में) बसाया ।

महाराजा डूँगरसिंह ( 1872-1887 ई.)

  • महाराजा सरदार सिंह के कोई पुत्र नहीं था । अत: उत्तराधिकारी का निर्णय होने तक शासन कार्य कप्तान बर्टन की अध्यक्षता में कौंसिल द्वारा किया गया । बाद में कप्तान बर्टन ने महाराजा सरदारसिंह के कुटुंब के ही महाराजा डूँगरसिंह को 11 अगस्त 1872 को बीकानेर का स्वामी बनाया ।
  • महाराजा डूँगरसिंह ने अपने जीवन काल में शिवबाड़ी व वहाँ अपने पिता के नाम पर लालेश्वर का शिवमंदिर बनाकर 1880 ई. में प्रतिष्ठा की ।
  • 21 नवंबर 1878 को अंग्रेजों व अफगानिस्तान की लड़ाई काबुल में हुई । इसमें महाराजा डूँगरसिंह ने 800 ऊँट अंग्रेजों की सहायतार्थ भेजें ।
  • 1884 ईस्वी में बीकानेर में डाकखाना खोला गया ।
  • इनके शासनकाल में प्रसिद्ध ‘बीकानेरी भुजिया’ की शुरुआत हुई ।
  • महाराजा डूँगरसिंह ने बीकानेर के किले का जीर्णोद्धार करवाया । उन्होंने सोहनबुर्ज, सुनहरी बुर्ज, चीनी बुर्ज तथा गणपति निवास, लाल निवास, सरदार निवास, गंगा निवास, शक्ति निवास आदि महल बनवाए ।
  • उन्होंने देवीकुंड पर महाराजा छत्रसिंह के नाम पर गिरिधर का मंदिर , दलेल सिंह के नाम पर बद्रीनारायण , शक्ति सिंह के नाम पर गोपाल , अपनी माता जुहार कुँवरी के नाम पर गणेश , विमाता प्रताप कुँवरी के नाम पर सूर्य और अपने ज्येष्ठ भ्राता गुलाब सिंह की स्मृति में गुलाबेश्वर का मंदिर बनवाया ।
  • इसके अतिरिक्त उन्होंने हरिद्वार में गंगा, काशी में डूँगरेश्वर और द्वारिका में मुरली मनोहर का मंदिर बनवाया ।
  • महाराजा डूँगरसिंह ने अपने नाम पर डूँगरगढ़ बसाया ।
  • 19 अगस्त 1887 को उनका स्वर्गवास हो गया । उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने छोटे भाई गंगासिंह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया ।

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