Heat ki Paribhasha

उष्मा किसे कहते हैं , मात्रक तथा प्रकार । Heat ki Paribhasha

आज हम सामान्य विज्ञान में (Heat ki Paribhasha ) ताप व उष्मा, विशिष्ट ऊष्मा , न्यूटन का शीतलन नियम , विकिरण , वाष्पीकरण आदि के बारे में जानेंगे, जो आपके आने वाले एग्जाम SSC, RRB, Patwari, आदि में प्रश्न पूछा जाता है ।

1. ताप व ऊष्मा

ताप या तापमान (Temperature) :- वस्तु की उष्णता और शीतलता के माप को ताप कहते हैं । अर्थात ताप वस्तु की उष्मीय अवस्था का सूचक है । इसी के कारण ऊष्मा का स्थानांतरण होता है । उष्मीय उर्जा सदैव उच्च ताप की वस्तु से निम्न ताप की वस्तु में जाती है ।

ऊष्मा (Heat ki Paribhasha) :- ऊष्मा एक प्रकार की ऊर्जा है, जो दो वस्तुओं के बीच उनके तापांतर के कारण एक वस्तु से दूसरी वस्तुओं में स्थानांतरित होती है । स्थानांतरण के समय ही ऊर्जा ऊष्मा कहलाती है ।

  • वस्तु का ताप, वस्तु में उष्मा की मात्रा तथा वस्तु के पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है, जबकि किसी वस्तु में निहित ऊष्मा उस वस्तु के द्रव्यमान व ताप पर निर्भर करती है ।
  • ऊष्मा एक प्रकार की ऊर्जा है, जिसे कार्य में बदला जा सकता है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण सबसे पहले रमफोर्ड ने दिया । बाद में डेवी ने बर्फ के दो टुकड़े को आपस में घिसकर पिगला दिया । चूंकि बर्फ के पिघलने के लिए ऊष्मा का और कोई स्रोत नहीं था, अतः यह माना गया कि बर्फ को घिसने में किया गया कार्य बर्फ पिघलने के लिए ली गई आवश्यक ऊष्मा में बदल गया । बाद में जूल ने अपने प्रयोगों से इस बात की पुष्टि की कि “ऊष्मा ऊर्जा का ही एक रूप है ।”
  • जूल ने बताया कि जब कभी कार्य ऊष्मा में बदलता है, या ऊष्मा कार्य में बदलती है तो किए गए कार्य व उत्पन ऊष्मा का अनुपात स्थिरांक होता है जिसे उष्मा का यांत्रिक तुल्यांक ( Mechanical equivalent of Heat) कहते हैं तथा इसको J से सूचित करते हैं ।
  • यदि W कार्य करने से उत्पन्न ऊष्मा की मात्रा Q हो तो, W/Q= J या W= JQ
  • जहां J का मान 4186 जूल / किलोकैलोरी या 4.1860 जूल / कैलोरी या 4.186×10 7 अर्ग / कैलोरी होता है ।
  • इसका तात्पर्य हुआ कि यदि 4186 जूल का यांत्रिक कार्य किया जाए, तो उत्पन्न ऊष्मा की मात्रा 1 किलो कैलोरी होगी ।

ऊष्मा के प्रभाव:
(१) भौतिक परिवर्तन :- किसी वस्तु पर उष्मा के प्रभाव से उसके भौतिक संरचना यथा रंग- रूप, आयतन, ताप एवं अवस्था आदि में परिवर्तन होते हैं, जैसे-

ताप में परिवर्तन:- साधारणत: सभी वस्तुओं को गर्म करने पर उनका तापमान बढ़ता है ।

 आयतन में परिवर्तन:- साधारणतया प्रत्येक वस्तु में ऊष्मा परिवर्तन से उसके आयतन में परिवर्तन होता है । साधारण ऊष्मा की मात्रा बढ़ने से उसका आयतन बढ़ता है ।

 अवस्था में परिवर्तन:- पदार्थ की तीन अवस्थाएं होती है – ठोस, द्रव एवं गैस । यह अवस्थाएं तापमान में परिवर्तन के कारण होती है और ताप में परिवर्तन उष्मा के कारण होती है अतः अवस्था परिवर्तन ऊष्मा के कारण होती है ।

 अन्य परिवर्तन:- गर्म करने पर पदार्थ के रंग – रूप, पदार्थ का विद्युत – प्रतिरोध, विलायक की विलयन क्षमता आदि में परिवर्तन हो जाता है ।

(२) रासायनिक परिवर्तन :- पदार्थ को गर्म करने पर कुछ स्थाई परिवर्तन होते हैं जिससे पोटेशियम क्लोरेट और मैग्नीज डाइऑक्साइड के मिश्रण को गर्म करने पर ऑक्सीजन गैस मुक्त होकर बाहर निकलती है ।

ऊष्मा के मात्रक (ushma ka matrak)

  • ऊष्मा का SI मात्रक जूल और CGS मात्रक कैलोरी है ।

▶कैलोरी (Calorie) :- 1 ग्राम जल का ताप 1°C बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को कैलोरी कहते हैं ।

▶ अंतर्राष्ट्रीय कैलोरी ( International Calorie) :- 1 ग्राम जल का ताप 14.5°C से 15.5°C तक बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को अंतरराष्ट्रीय कैलोरी कहते हैं ।

विभिन्न मात्रकों में संबंध

1 जूल = 0.24 कैलोरी
1 कैलोरी = 4.186 जूल
1 किलो कैलोरी = 4.186×1030 जूल= 1000 कैलोरी
1B.Th.U. = 252 कैलोरी

▶ ब्रिटिश थर्मल यूनिट (B.Th.U. ) :- एक पौंड जल का ताप 1°F बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को 1 B. Th. U. कहते हैं ।

▶ तापमापी ( Thermometer) :- ताप मापने वाली यंत्र को तापमापी कहते हैं । ताप मापन के लिए पदार्थ के किसी ऐसे गुण का प्रयोग किया जाता है, जो ताप पर निर्भर करता है ; जैसे – द्रव के आयतन में प्रसार, पदार्थ के विद्युत प्रतिरोध में परिवर्तन आदि ।

तापमापी के प्रकार (Tapmapi ke prakar)

(१) द्रव तापमापी ( Liquid Thermometer) :- द्रव तापमापी में मुख्य रूप से एल्कोहल या पारा का प्रयोग किया जाता है । एल्कोहल का प्रयोग उन तापमापी में किया जाता है जो -40°C से नीचे के ताप मापते हैं । एल्कोहल -115°C पर जमता है । पारा -39°C पर जमता है और 357°C पर उबलने लगता है । इसीलिए पारे का तापमापी लगभग -40°C से 350°C तक के ताप को मापने के लिए प्रयुक्त होता है ।

(२) डॉक्टरी तापमापी ( Clinical Thermometer) :- मानव शरीर के ताप के मापन के लिए प्रयोग किए जाने वाले थर्मामीटर को क्लीनिकल थर्मामीटर कहते हैं । चूंकि मानव शरीर का ताप एक छोटे परिसर (short range) के बीच बदलता ( vary) रहता है इसलिए इस थर्मामीटर में न्यूनतम बिंदु 95°F ( या 35°C) तथा उच्चतम बिंदु 110°F (या 43°C ) अंकित किया जाता है ।

(३) गैस तापमापी (Gas Thermometer) :- स्थिर आयतन हाइड्रोजन गैस तापमापी से 500°C तक के ताप को मापा जा सकता है । हाइड्रोजन की जगह नाइट्रोजन गैस लेने पर 1500°C तक के ताप को मापा जा सकता है ।

(४) प्लेटिनम प्रतिरोध तापमापी ( Platinum Resistance Thermometer) :- इसके द्वारा -200°C से -1200°C तक के ताप मापे जाते हैं ।

(५) ताप – युग्म तापमापी (Thermo- couple Thermometer) :- इस प्रकार के तापमापी से -200°C से 1600°C तक के ताप को मापा जा सकता है । ताप – युग्म तापमापी सीबेक प्रभाव पर आधारित है ।

 सीबेक प्रभाव (Seebeck Effect) :- जब दो भिन्न-भिन्न धातुओं के तारों के सिरों को जोड़कर एक बंद परिपथ बनाते हैं इस परिपथ की ससंधियों( junctions) को अलग-अलग तापों पर रखते हैं तो परिपथ में धारा बहने लगती है । इसे ताप विद्युत धारा कहते हैं तथा इस प्रभाव को सीबेक प्रभाव कहते हैं ।

(६) पूर्ण विकिरण तापमापी ( Total Radiation Pyrometer) :- इस तापमापी की सहायता से अत्यधिक उनसे एवं दूर स्थित वस्तुएं जैसे सूर्य आदि के तत्वों की माप की जाती है यह तापमापी स्टीफन के नियम पर आधारित है, जिसके अनुसार उच्च ताप पर उसी वस्तु से उत्सर्जित विकिरण की मात्रा इसके परम ताप के चतुर्थ घात के अनुक्रमानुपाती होती है । किसी निश्चित समय में वस्तु द्वारा उत्सर्जित विकिरण ऊर्जा की माप कर वस्तु के ताप की गणना कर ली जाती है । प्राय: 800°C से ऊँचे ताप ही इस तापमापी से मापे जाते हैं इससे नीचे के ताप नहीं । इसका कारण यह है कि 800°C से कम ताप की वस्तुएं ऊष्मीय विकिरण उत्सर्जित नहीं करती है ।

ताप मापने के पैमाने (Scales of Temperature Measurement ) :-

  • ताप मापने के लिए हम दो बिंदु निश्चित करते हैं पिघलते हुए बर्फ के ताप को ही हिमांक (Ice Point) तथा पारे के 760 मिमी. दाब पर उबलते हुए शुद्ध जल के ताप को भाप बिंदु (Steam Point) कहते हैं ।
  •  कई प्रकार के ताप पैमाने प्रचलित रहे हैं, जैसे – सेल्सियस, फॉरेनहाइट, रयूमर, केल्विन, रेकाइन ताप पैमाना आदि ।

(१) सेल्सियस पैमाना (Celcuis Scale) :- इसमें यह हिमांक को 0°C तथा भाप बिंदु को 100°C अंकित किया जाता है तथा इनके बीच की दूरी को 100 बराबर भागों में बांट दिया जाता है । प्रत्येक भाग को 1°C (1 डिग्री सेल्सियस ) कहते हैं । पहले सेल्सियस पैमाने को सेंटीग्रेड पैमाना कहा जाता था ।

(२) फारेनहाइट पैमाना (Fahtenheit Scale):- इसमें हिमांक को 32°F तथा भाप बिंदु को 212°F अंकित किया जाता है तथा इनके बीच की दूरी को 180 बराबर भागों में बांट दिया जाता है प्रत्येक भाग को 1°F कहते हैं ।

(३) रयूमर पैमाना (Reamur Scale) :- इसमें हिमांक को 0°R तथा भाप बिंदु को 80°R अंकित किया जाता है तथा इनके बीच की दूरी को 80 बराबर भागों में बांट दिया जाता है । प्रत्येक भाग को 1°Rकहते हैं । आजकल इस पैमाने का प्रयोग प्राय: समाप्त हो गया है ।

(४) केल्विन पैमाना (Kelvin Scale) :- इसमें हिमांशु को 273K तथा भाप बिंदु को 373K अंकित किया जाता है और इनके बीच की दूरी को 100 बराबर भागों में बांट दिया जाता है । प्रत्येक भाग को 1K कहते हैं ।

▶ परम शून्य (Absolute Zero) :- सिद्धांत रूप में अधिकतम ताप कि कोई सीमा नहीं है परंतु निम्नतम ताप की सीमा है । किसी भी वस्तु का ताप 272.15°C से कम नहीं हो सकता है । इसे परम शून्य ताप कहते हैं और केल्विन पैमाने पर 0K लिखते हैं ।

अर्थात 0K = -273. 15°C
एवं 273.15K = 0°C

नोट :- केल्विन में व्यक्त ताप को परम ताप कहते हैं ।

विभिन्न पैमानों पर कुछ तापमान:-

तापमानसेल्सियस(°C )फारेनहाइट(°F)   केल्विन(K)
जल का जमना032273
कमरे का सामान्य ताप2780.6300
मानव शरीर का सामान्य ताप3798.6310
जल का उबलना100212373

 2. विशिष्ट ऊष्मा (vishisht ushma)

विशिष्ट ऊष्मा:- किसी पदार्थ की विशिष्ट ऊष्मा, ऊष्मा कि वह मात्रा है, जो उस पदार्थ के एकांक द्रव्यमान में एकांक ताप वृद्धि उत्पन्न करती है । अर्थात यदि पदार्थ के 1 ग्राम द्रव्यमान लेकर इसका ताप 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया जाए, तो इस प्रक्रिया में दी गई ऊष्मा को पदार्थ की विशिष्ट ऊष्मा कहते हैं ।

स्पष्ट है कि m द्रव्यमान में θताप वृद्धि करने के लिए आवश्यक ऊष्मा Q = mcθ होगी, जहां c उस पदार्थ की विशिष्ट ऊष्मा है ।

अर्थात c = Q/m×θ

विशिष्ट ऊष्मा का SI मात्रक = जूल /किलोग्राम × केल्विन

कुछ पदार्थों की विशिष्ट ऊष्मा

पदार्थ——— विशिष्ट ऊष्मा (कैलोरी /ग्राम °C में)
सीसा——— 0.03
पीतल——- 0.09
लोहा——- 0.11
कार्बन—– 0.17
बालू—— 0.20
एलुमिनीयम—- 0.21
संगमरमर—– 0.21
मैग्निशियम्—- 0.25
तारपीन—– 0.42
बर्फ—- 0.50
ऐल्कोहॉल— 0.60
पानी—– 1

▶ गैसों की विशिष्ट ऊष्माएँ :- गैसों का आकार एवं आयतन दोनों अनिश्चित होता है । इसीलिए गैसों की दो विशिष्ट ऊष्माएँ होती है-

(1) नियत आयतन पर विशिष्ट ऊष्मा (Cv)
(2) नियत दाब पर विशिष्ट ऊष्मा (Cp)

Cv एवं Cp के मात्रक = कैलोरी/ ग्राम°C या कैलोरी /मोल°C या जूल /मोल°C

  • मेयर का सूत्र (R) = Cp – Cv

3. ऊष्मीय प्रसार

ऊष्मीय प्रसार (Thermal Expansion) :- सामान्यतः पदार्थ को ऊष्मा देने पर पदार्थ का आयतन बढ़ता है, क्योंकि ताप बढ़ने पर पदार्थ के अणुओं के बीच की दूरी बढ़ जाती है । लेकिन कुछ पदार्थ, जैसे पानी 0°C से 4°C के बीच, सिल्वर आयोडाइड 80°C से 140°C के बीच आदि का ताप बढ़ाने पर इनका संकुचन होता है ।

ऊष्मीत किए जाने पर प्राय सभी गैसों, बहुत से द्रवो एवं ठोसों में प्रसार होता है ।परंतु यह सभी समान रूप से प्रसार नहीं करते हैं । यदि गैस, द्रव एवं ठोस को समान ऊष्मा द्वारा ऊष्मीत किया जाए तो सबसे अधिक प्रसार गैसों में होगा उससे कम प्रसार द्रव में एवं सबसे कम प्रसारित ठोसों में होगा ।

▶ रेखीय प्रसार गुणांक (Co-efficient of Linear Expansion) :- प्रति डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर किसी वस्तु की इकाई लंबाई में जो वृद्धि या प्रसार होता है, उसे रेखीय प्रसार गुणांक कहते हैं ।

इसका मात्रक प्रति डिग्री सेल्सियस होता है इसे α से सूचित किया जाता है ।

रेखीय प्रसार गुणांक = लंबाई में वृद्धि / मूल लंबाई × ताप वृद्धि

क्षेत्रीय प्रसार गुणांक (Co-efficient of Superficial Expansion) :- प्रति डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर किसी वस्तु के इकाई क्षेत्र में जो प्रसार होता है, उसे क्षेत्रीय प्रसार गुणांक कहते हैं ।

क्षेत्रीय प्रसार गुणांक = क्षेत्रफल में वृद्धि/ मूल क्षेत्रफल× ताप वृद्धि

आयतन प्रसार गुणांक (Co-efficient of Cubical Expansion) :- प्रति डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर किसी वस्तु की इकाई आयतन में जो प्रसार होता है, उसे आयतन प्रसार गुणांक कहते हैं ।

आयतन प्रसार गुणांक = आयतन में वृद्धि /मूल आयतन × ताप वृद्धि

रेखीय, क्षेत्रीय एवं आयतन प्रसार गुणांक में संबंध:- α = β/2=γ/3

▶ जल का असामान्य प्रसार :- प्राय: सभी द्रव गर्म किए जाने पर आयतन में बढ़ते हैं परंतु जल 0°C से 4°C तक गर्म करने पर आयतन में घटता है तथा 4°C के बाद बढ़ना आरंभ करता है इसे ही जल का असामान्य प्रसार कहते हैं ।

उदाहरण-(1) ठंडे देशों में तालाबों के जन्म जाने पर भी उनमें मछलियां जीवित रहती है ।
(2) जाड़े की रातों में पाइप फट जाते हैं ।

4. ऊष्मा का संचरण

ऊष्मा का संचरण (Transmission of Heat) :- ऊष्मा को एक स्थान से दूसरे स्थान जाने को ऊष्मा का संचरण कहते हैं ।

इनकी तीन विधियां है – चालन, संहवन एवं विकिरण ।

(१) चालन (Conduction) :- जब बिना स्थान परिवर्तन किए ही पदार्थ के तप्त कण अपनी ऊष्मा अपने बगल वाले कणों को दे देते हैं और पूरी वस्तु गर्म हो जाती है तो ऊष्मा के संचरण की इस विधि को चालन कहते हैं । इस विधि में ऊष्मा के संचरण के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है परंतु माध्यम के तप्त कोणों का स्थान परिवर्तन नहीं होता है ।

उपयोग– एस्किमो लोग बर्फ की दोहरी दीवारों के मकान में रहते हैं ।

  •  शीत ऋतु में लकड़ी एवं लोहे की कुर्सियां एक ही ताप पर होती है, परंतु लोहे की कुर्सी छूने पर लकड़ी की अपेक्षा अधिक ठंडी लगती है ।
  • धातु के प्याले में चाय पीना कठिन है, जबकि चीनी मिट्टी के प्याले में चाय पीना आसान है ।

 ऊष्मा चालकता ( Thermal Conductivity) :- पदार्थ में चालन द्वारा ऊष्मा का संचरण ऊष्मा चालकता कहलाती है ।
ऊष्मा चालकता पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करती है तथा जिन पदार्थों में ऊष्मा का चालन जितना अधिक होता है उनकी ऊष्मा चालकता भी उतनी ही अधिक होती है ।

ऊष्मा की चालकता के आधार पर हम पदार्थों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से कर सकते हैं –
(1) चालक (Conductor) :- जिन पदार्थों से होकर ऊष्मा का चालन सरलता से हो जाता है उन्हें चालक कहते हैं ।
ऐसे पदार्थों की ऊष्मा चालकता अधिक होती है ।सभी धातु, अम्लीय जल, मानव शरीर आदि ऊष्मा के अच्छे चालक है ।

(2) कुचालक (Bad Conductor) :- जिन पदार्थों से ऊष्मा का चालन सरलता से नहीं होता या बहुत कम होता है उन्हें कुचालक कहते हैं ।
लकड़ी, काँच, वायु, गैसें, सिलिका, कपड़ा, उन, रब्बर आदि ऊष्मा के कुचालक पदार्थ है ।
बुरे चालक अच्छे रोधी/रोधक होते हैं (Bad conductor अरे good insulators ) । कपड़ा, उन आदि के अच्छे रोधी गुणों का कारण उनके रेशों के बीच फंसी हवा होती है ।

(3) ऊष्मा रोधी (Thermal Insulator) :- जिन पदार्थों से ऊष्मा का चालन बिल्कुल नहीं होता,उन्हें ऊष्मा रोधी पदार्थ कहते हैं । जैसे- एबोनाइट, एस्बेस्टस आदि ।

(२) संवहन (Convection) :- गैसों एवं द्रवों में ऊष्मा का संचरण संवहन के द्वारा ही होता है । ठोसों में संवहन विधि द्वारा ऊष्मा का संचरण संभव नहीं है । इस विधि में द्रव एवं गैस के कण गर्म भाग से ऊष्मा लेकर स्वयं हल्के होकर ऊपर उठते हैं तथा ठंडे भाग की ओर जाते हैं । इनका स्थान लेने के लिए पुन: ठंडे भाग से कण नीचे आते हैं । इस प्रकार, संवहन विधि में ऊर्ध्वाधरत तापांतर होने पर उष्मा का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर माध्यम के घनत्व में परिवर्तन होने के कारण से संवहन धाराओं द्वारा होता है ।

नोट :- पृथ्वी का वायुमंडल संवहन विधि से ही गर्म होता है ।

उपयोग -समुद्री हवाएं तथा स्थलीय हवाएं ।
रेफ्रिजरेटर में फ्रीजर पेटीका को ऊपर रखा जाता है ।
बिजली के बल्ब में निष्क्रिय गैसों का भरा जाना ।

(३) विकिरण (Radiation ) :- विकिरण में ऊष्मा के संचरण के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है । इसके द्वारा ऊष्मा का संचरण निर्वात में भी होता है । इस विधि में ऊष्मा गर्म वस्तु से ठंडी वस्तु की और बिना किसी माध्यम की सहायता के तथा बिना माध्यम को गर्म किए प्रकाश के वेग से सीधी रेखा में संचरित होती है । विकिरण में ऊष्मा, तरंगों के रूप में चलती है, जिन्हें विद्युत चुंबकीय तरंगे (Electro-magnetic Waves) कहते हैं । जैसे- पृथ्वी तक सूर्य की ऊष्मा विकिरण विधि से पहुंचती है ।

उपयोग– बादलों वाली रात, स्वच्छ आकाश वाली रात की अपेक्षा गर्म होती है ।
रेगिस्तान दिन में बहुत गर्म तथा रात में बहुत ठंडे हो जाते हैं ।
चाय की केतली की बाहरी सतह चमकदार बनाई जाती है ।
पॉलिश किए हुए जूते धूप से शीघ्र गर्म नहीं होते ।

5.न्यूटन का शीतलन नियम

न्यूटन का शीतलन नियम (Newton’s Law of cooling) :- इस नियम के अनुसार किसी वस्तु में विकिरण द्वारा ऊष्मा क्षय होने की दर उस वस्तु और वातावरण के तापमान के अंतर के समानुपाती होता है अर्थात वस्तु की ऊष्मा हानि की दर () तापांतर । अतः एक गर्म वस्तु द्वारा 90°C से 80°C तक ठंडा होने में लगा समय उसके 40°C से 30°C तक ठंडा होने में लगे समय से कम होगा ।

नोट – विकिरण द्वारा किसी वस्तु से क्षय होने वाली ऊष्मा की दर वस्तु और उसके आसपास के वातावरण के तापांतर के साथ-साथ वस्तु के पृष्ठ की प्रकृति और पृष्ठ क्षेत्रफल पर भी निर्भर करता है ।

6. विकिरण का उत्सर्जन व अवशोषण

उत्सर्जन क्षमता (Emissive power) :- वस्तु के प्रति एकांक पृष्ठ से प्रति एकांक समय में उत्सर्जित विकिरण ऊर्जा की मात्रा को उस वस्तु की उत्सर्जन क्षमता कहते हैं । चमकदार तथा श्वेत तल से ऊष्मा का उत्सर्जन बहुत कम होता है ।

कृष्ण पिंड ( Black Body) :- जो वस्तु अपने पृष्ठ पर आपतित संपूर्ण विकिरण को पूर्णता अवशोषित कर लेती है उसे कृष्ण पिंड कहते हैं । काली वस्तु ऊष्मा का अच्छा अवशोषक होती है । इसीलिए सर्दियों में काले एवं गहरे रंग के कपड़े पहने जाते हैं । सफेद कपड़े उष्मा के बुरे अवशोषण होते हैं, इसीलिए उन्हें गर्मियों में पहना जाता है ।

किरचॉफ का नियम (Kirchhoff’s Law) :- इसके अनुसार अच्छे अवशोषक ही अच्छे उत्सर्जक होते हैं । अंधेरे कमरे में एक काली और एक सफेद वस्तु को समान ताप पर गर्म करके रखा जाए तो काली वस्तु अधिक विकिरण उत्सर्जित करेगी । अतः काली वस्तु अंधेरे कमरे में अधिक चमकेगी । हमारे दैनिक जीवन में प्रयोग में लाए जाने वाले कई बर्तन किरचॉफ के नियम के अनुसार बनते हैं । जैसे थरमस के बाहरी एवं भीतरी दोनों शब्दों को चमकदार बनाया जाता है, क्योंकि सफेद एवं चमकदार ऊष्मा की बुरी अवशोषक होती है? अतः बुरी उत्सर्जक भी होती है, फलस्वरुप ऊष्मा की हानि कम होती है । चाय के प्याले की सतह भी चमकदार एवं सफेद इसी कारण से बनाई जाती है ।

नोट :-यदि श्वेह प्रकाश के सात रंगों में लाल रंग को निकाल दिया जाए, तो शेष रंगों का सम्मिलित प्रभाव हरे रंग जैसा होता है, अतः किरचॉफ के नियम अनुसार लाल रंग की वस्तु गर्म होने पर हरा प्रकाश उत्सर्जित करेगी । इसीलिए लाल कांच की गेंद को गर्म करके अंधेरे कमरे में रखा जाए तो वह हरी दिखाई देती है और हरे कांच की पर्याप्त रूप से गर्म गेंद लाल दिखाई देगी ।

 स्टीफन का नियम (Stefan’s Law) :- किसी वस्तु की इकाई तल से उत्सर्जित विकिरण ऊर्जा की दर E उसके परम ताप T के चौथे घात के अनुक्रमानुपाती होती है । E ∝ T⁴ या

E = σ Τ⁴ जहां σ एक नियतांक है जिसे स्टीफन नियतांक कहते हैं ।

7. गैसों का प्रसार

गैसों का गतिज सिद्धांत (Kinetic Theory of gases) :- गैसों का व्यवहार का सैद्धांतिक अध्ययन सबसे पहले सन 1738 ईस्वी में जैम्स बरनौली ने किया था । उसके बाद सन 1807 से 1890 के बीच बोल्टमान, मैक्स वेल, क्लोसियस आदि ने भी गैसों के विभिन्न मॉडल प्रस्तुत किए । इन सब के प्रयासों के परिणाम स्वरूप गैसों का एक व्यापक सिद्धांत उभर कर सामने आया जिसे गैसों का गतिक सिद्धांत कहते हैं । इस सिद्धांत के मुख्य परिणाम निम्नलिखित है –

(1) प्रत्येक गैस एक समान द्रव्यमान व आयतन वाले सूक्ष्म कणों से बनी होती है जिन्हें अणु कहते हैं ।
(2) गैसों के अणु गोलीय होते हैं तथा पूर्णतः प्रत्यास्थ होते हैं । अतः परस्पर टकराने के बाद भी उनकी ऊर्जा में कोई कमी नहीं आती है ।
(3)गैस के अणु लगातार पात्र की दीवारों से टकराते रहते हैं, जिससे पात्र की दीवारों पर दाब उत्पन्न होता है । इसे ही गैसीय दाब कहते हैं ।
(4)गैस के अणुओं में परस्पर आकर्षण एवं विकर्षण नहीं होता है । अतः गैस के अणुओं की स्थितिज ऊर्जा शून्य होती है ।
(5)गैस के अणुओं की गतिज ऊर्जा गैस के परम ताप के अनुकमानुपाती होती है ।
(6) गैसीय अणुओ का वास्तविक आयतन गैस के संपूर्ण आयतन की तुलना में नगण्य में होता है।

8.अवस्था परिवर्तन व गुप्त ऊष्मा

(A) अवस्था परिवर्तन :- किसी पदार्थ का एक निश्चित ताप पर एक अवस्था से दूसरी अवस्था अर्थात ठोस से द्रव या द्रव से गैस या द्रव से ठोस या गैस से द्रव में परिवर्तित होना अवस्था परिवर्तन कहलाता है । चूँकि अवस्था परिवर्तन में पदार्थ का ताप नहीं बदलता है, अतः पदार्थ के अणुओं की माध्य गतिज ऊर्जा नहीं बदलती है लेकिन अणुओं की आंतरिक स्थिति ऊर्जा बदल जाती है ।

(1) गलनांक (Melting Point) :- निश्चित ताप पर ठोस का द्रव में बदलना गलन कहलाता है तथा इस निश्चित ताप को ठोस का गलनांक कहते हैं ।

गलनांक पर दाब का प्रभाव :- वह पदार्थ जो पिघलने पर संकुचित होते हैं उन पर दाब बढ़ाने से उनका गलनांक कम हो जाता है, जैसे- बर्फ, ढलवा लोहा, बिस्मथ आदि तथा वह पदार्थ जो पिघलने पर प्रसारित होते हैं, उन पर दाब बढ़ाने से उनका गलनाक बढ़ जाता है ।

गलनाक का अशुद्धि पर प्रभाव :- सामान्य अशुद्धि मिलाने से गलनांक कम हो जाता है । जैसे- 0°C पर पिघलती बर्फ में कुछ नमक, शोरा आदि मिलाने से बर्फ का गलनांक 0°C से घटकर -22°C तक कम हो जाता है । ऐसे मिश्रण को हिम मिश्रण कहते हैं । इस मिश्रण का उपयोग कुल्फी, आइसक्रीम आदि बनाने में किया जाता है ।

(2) हिमांक (Freeezing Point ) :- निश्चित ताप पर द्रव का ठोस में बदलना हिमीकरण कहलाता है तथा इस निश्चित ताप को द्रव का हिमांक कहते हैं । प्राय गलनाक एवं हिमांक बराबर होते हैं ।

(3) क्वथनांक (Boiling Point) :- निश्चित ताप पर द्रव का वाष्प या गैस में बदलना वाष्पण कहलाता है तथा इस निश्चित ताप को द्रव का क्वथनांक कहते हैं ।

क्वथनांक पर दाब का प्रभाव :- दाब बढ़ाने से द्रव का क्वथनांक बढ़ता है ।

क्वथनांक पर अशुद्धि का प्रभाव :- अशुद्धि मिलाने से भी द्रव का क्वथनांक बढ़ता है ।

(4) संघनन बिंदु (Condensation Point) :- निश्चित ताप पर वाष्प का द्रव में बदलना संघनन कहलाता है तथा इस निश्चित ताप को संघनन बिंदु कहते हैं । प्राय क्वथनांक एवं संघनन बिंदु समान होते हैं ।

(B) गुप्त ऊष्मा (Latent Heat) :- नियत ताप पर पदार्थ की अवस्था परिवर्तन के लिए ऊष्मा की आवश्यकता होती है, इसे ही पदार्थ की गुप्त ऊष्मा कहते हैं । इसे जूल/ किलोग्राम या कैलोरी/ ग्राम में मापा जाता है ।

▶ गलन की गुप्त ऊष्मा :- नियत ताप पर ठोस के एकांक द्रव्यमान को द्रव में बदलने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को ठोस की गलन की गुप्त ऊष्मा कहते हैं । 0°C पर 1 ग्राम बर्फ को 0°C पर पानी में बदलने के लिए 80 कैलोरी ऊष्मा की आवश्यकता होती है । अतः बर्फ के गलन की गुप्त ऊष्मा का मान 80 कैलोरी प्रति ग्राम है ।

▶ वाष्पण की गुप्त ऊष्मा :- नियत ताप पर द्रव के एकांक द्रव्यमान को वाष्प में बदलने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को द्रव की वाष्पन की गुप्त ऊष्मा कहते हैं । जल के लिए वाष्पन की गुप्त ऊष्मा का मान 540 कैलोरी/ग्राम या 2260000 जूल/किलोग्राम होता है ।

गुप्त ऊष्मा को प्राय अक्षर L द्वारा प्रदर्शित किया जाता है । यदि पदार्थ की गुप्त ऊष्मा L है तो पदार्थ के m द्रव्यमान की अवस्था परिवर्तन के लिए आवश्यक ऊष्मा Q =mL होगा ।

उबलते जल की अपेक्षा भाप से जलने पर अधिक कष्ट होता है, यद्यपि दोनों का ताप 100°C ही होता है : 100°C के जल की अपेक्षा 100°C के भाप की गुप्त ऊष्मा का मान अधिक होता है इसीलिए जल की अपेक्षा भाप से जलने पर अधिक कष्ट होता है ।

9. वाष्पीकरण

वाष्पीकरण (Evaporation ):- द्रव की खुली सतह से प्रत्येक ताप पर धीरे-धीरे द्रव का वाष्प में बदलना वाष्पीकरण कहलाता है । वाष्पीकरण के लिए द्रव को ऊष्मा की आवश्यकता होती है, यह ऊष्मा द्रव अपने अंदर से ही प्राप्त करता है ,अतः द्रव ठंडा हो जाता है । आम जीवन में इसके कई उदाहरण देखने को मिलते हैं; जैसे- हमारे शरीर में पसीना जब सुखता है तो हमें ठंडक महसूस होती है, क्योंकि पसीना सूखने यानी वाष्पीकरण के लिए ऊष्मा शरीर से ग्रहण होता है अत: शरीर ठंडा हो जाता है । वाष्पीकरण के कारण ही कुलर ठंड उत्पन्न करता है एवं सुराही का पानी ठंडा हो जाता है ।
वाष्पन की दर निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करती है-

(1) द्रव का ताप:- ताप बढ़ने पर वाष्पीकरण की दर बढ़ जाती है।
(2) द्रव की खुली सतह का क्षेत्रफल:- द्रव की खुली सतह का क्षेत्रफल बढ़ जाने पर वाष्पीकरण की दर भी बढ़ जाती है ।
(3) वाष्प निकासी दर:- वाष्पीकरण से द्रव की वाष्प उसकी सतह के ऊपर ही जमा होती रहती है, यदि इसे वहां से हटाते रहे, तो वाष्पन की दर बढ़ जाती है । यही कारण है कि पंखे की हवा में गीले कपड़े शीघ्र सूख जाते हैं ।

▶ प्रशीतक:- प्रशीतक में भी वाष्पीकरण के द्वारा ठंडक उत्पन्न की जाती है । तांबे की 1 वाष्पक कुंडली में द्रव फ्रीओन भरा जाता है जो वाष्पीकृत होकर ठंडक उत्पन्न करती है ।

10.आपेक्षिक आर्द्रता

▶ आर्द्रता (Humidity ) :- वायुमंडल में जलवाष्प की उपस्थिति को आर्द्रता कहते हैं । वायु में उपस्थित जलवाष्प की यह मात्रा प्रत्येक स्थान पर समान नहीं होती । प्राय समुद्र तटीय स्थान में जलवाष्प की मात्रा यानी आर्द्रता अधिक होती है । वर्षा ऋतु में भी आर्द्रता बढ़ जाती है ।

▶ आपेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity ) :- किसी दिए हुए ताप पर वायु की किसी आयतन में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा तथा उसी ताप पर उसी आयतन की वायु को संतृप्त करने के लिए आवश्यक जलवाष्प की मात्रा के अनुपात को आपेक्षिक आर्द्रता कहते हैं ।

आपेक्षिक आर्द्रता को मापने के लिए हाइड्रोमीटर नामक यंत्र का इस्तेमाल किया जाता है ताप बढ़ने पर आपेक्षिक आर्द्रता बढ़ जाती है ।

नोट – संतृप्त अवस्था (Saturated State) :-किसी दिए गए ताप पर वायु जलवाष्प की एक निश्चित मात्रा ही ग्रहण कर सकती है इस अवस्था को वायु की संतृप्त अवस्था कहते हैं ।

▶ वातानुकूलन (Air-conditioning) :- पृथ्वी पर किसी स्थान की जलवायु वहां के ताप, आपेक्षिक आर्द्रता तथा वायु बहने की दिशा से निर्धारित होती है । सामान्यतः मनुष्य के स्वास्थ्य के अनुकूल जलवायु के लिए निम्न परिस्थितियां होनी चाहिए –
(1) ताप :- 23°C से 25°C
(2) आपेक्षिक आर्द्रता :- 60% से 65%
(3) वायु की गति :- 0.0125 मी./से. से 0.0416 मी./ से. तक

यदि किसी स्थान की जलवायु उपयुक्त परिस्थितियों के अनुसार नहीं होती तो वह जलवायु मनुष्य के लिए आरामदेह व स्वास्थ्यकर नहीं होती; अतः इसको अनुकूल बनाने के लिए बाह्य परिस्थितियों को कृत्रिम रूप से निर्धारित व नियंत्रित करने की प्रक्रिया को ही वातानुकूलन कहते हैं ।

11. ऊष्मागतिकी

▶ ऊष्मागतिकी (Thermodynamics) :- ऊष्मागतिकी भौतिकी की वह शाखा है, जिसके अंतर्गत ऊष्मीय ऊर्जा का यांत्रिक ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा आदि के साथ संबंध के बारे में अध्ययन किया जाता है ।

 ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम :- इस नियम को ऊर्जा संरक्षण का नियम (The Law of Conservation of Energy)भी कहते हैं । इस नियम के अनुसार किसी निकाय को दी जाने वाली ऊष्मा दो प्रकार के कार्यों में खर्च होती है-

(1) निकाय की आंतरिक ऊर्जा वृद्धि करने में, जिससे निकाय का ताप बढ़ता है ।
(2)बाह्य कार्य करने में ।
यदि किसी निकाय को Q ऊष्मा दी जाए, तो ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम अनुसार-
Q = ∆u+W

जहां ∆u = आंतरिक ऊर्जा में वृद्धि ,W = निकाय द्वारा किया गया बाह्य कार्य

यह नियम मुख्यत: ऊर्जा सरंक्षण को प्रदर्शित करता है, परंतु व्यवहार में देखा जाता है कि कार्य को तो ऊष्मा में पूर्णता बदला जा सकता है, किंतु ऊष्मा को पूर्णत: कार्य में नहीं बदला जा सकता है । प्रथम नियम के आधार पर इसे नहीं समझाया जा सकता है ।

ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम :- इस नियम को उत्क्रम माप का नियम (The Law of Entropy)भी कहते हैं । ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊष्मा प्रवाहित होने की दिशा नहीं बताता ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम ऊष्मा की प्रवाहित होने की दिशा को व्यक्त करता है ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम दो कथनों के रूप में व्यक्त किया जाता है –

(1) केल्विन प्लांक का कथन :- “किसी भी ऐसे ऊष्मा इंजन का निर्माण असंभव है, जो कि चक्रीय प्रक्रम में किसी स्रोत से उस्मा लेकर, कार्यकारी पदार्थ में बिना कुछ परिवर्तन किए, उसे पूर्णतः कार्य में बदल सके”। इस प्रकार के इंजन की दक्षता सदैव एक से कम होती है । दक्षता η =W/Q₁ जहां किया गया उपयोगी कार्य है, और Q₁ अवशोषित उष्मा है ।

(2) क्लासियस का कथन :- “ऐसी किसी भी स्वचालित मशीन का निर्माण संभव है, जो चक्रीय प्रक्रम में बिना किसी बाह्य ऊर्जा स्रोत की सहायता से ऊष्मा को ठंडी वस्तु से गर्म वस्तु तक पहुंचा सके” ।
ऊष्मा सदैव गरम वस्तु से ठंडी वस्तु की ओर प्रवाहित होती है, परंतु प्रशीतक में बाह्य ऊर्जा स्रोत (विद्युत मोटर) की सहायता से ऊष्मा को ठंडी वस्तु से गर्म (वायुमंडल) में पहुंचाया जाता है ।

ऊष्मागतिकी निकाय तथा प्रक्रम (Thermodynamic System and Processes) :-

ऊष्मागतिकी निकाय :- वह निकाय जिस की अवस्था को आयतन, दाब तथा ताप के पदों में व्यक्त किया जा सकता है, ऊष्मागतिकी निकाय कहलाता है । जैसे – सिलेंडर में भरी गैस, फुटबॉल में भरी हवा आदि एक ऊष्मागतिकी निकाय है ।

ऊष्मागतिकी प्रक्रम :- किसी निकाय को दाब, आयतन व ताप की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में ले जाने के लिए जिस प्रक्रिया को अपनाया जाता है, उसे ऊष्मागतिकी प्रक्रम कहते हैं । यह निम्न प्रकार के होते हैं –

(1) चक्रिय प्रक्रम (Cyclic Process) :- जब कोई निकाय विभिन्न अवस्थाओं से होकर प्रारंभिक अवस्था में लौट आता है, तो ऐसे प्रक्रम को चक्रीय प्रक्रम कहते हैं । इसमें निकाय की आंतरिक ऊर्जा में कोई परिवर्तन नहीं होता है, अर्थात ∆u = 0 (शून्य) अतः Q = W यानी निकाय को दी गई कुल ऊर्जा उसके द्वारा किए गए कार्य के बराबर होती है ।

(2) समदाबी प्रक्रम (Isochoric Process) :- यदि प्रक्रम की अवधि में निकाय का दाब एक समान रहता है, तो उसे समदाबी प्रक्रम कहते हैं ।

(3) समआयतनिक प्रक्रम (Isochoric Process) :- यदि प्रक्रम की अवधि में निकाय का आयतन स्थिर रहता है तो ऐसे प्रक्रम को समआयतनिक प्रक्रम कहते हैं । ऐसे प्रक्रम में किया गया बाह्य कार्य शुन्य होता है (W = 0), अत: Q = ∆u अर्थात निकाय को दी गई उर्जा उसकी आंतरिक ऊर्जा में वृद्धि (जैसे ताप में वृद्धि) करने में काम आती है ।

(4) समतापी प्रक्रम (Isothermal process) :- जब निकाय में परिवर्तन इस प्रकार होता है कि संपूर्ण क्रिया में निकाय का ताप स्थिर बना होता है, तो ऐसे प्रक्रम को समतापी प्रक्रम कहते हैं । ऐसे प्रक्रम प्राय: बहुत धीरे-धीरे संपन्न किए जाते हैं ।

(5) रुद्धोष्म प्रक्रम (Adiabatic Process) :- जब निकाय में परिवर्तन इस प्रकार होता है कि निकाय मैं तो अपने बाहर के वातावरण को कोई उष्मा दे पाए और न वहां से उष्मा ग्रहण करें, तो प्रक्रम को रुद्धोष्म प्रक्रम कहते हैं । इस प्रक्रम के कुछ उदाहरण है –

(1) यदि साइकिल का ट्यूब अचानक फट जाए तो, उसकी हवा निकलकर वायुमंडल में फैल जाती है । अचानक फैलाव के कारण वह बाहर से उर्जा नहीं ले पाती और प्रसार के लिए आवश्यक ऊर्जा अपने आंतरिक उर्जा से ही ग्रहण करती है । अतः आंतरिक ऊर्जा घट जाती है जिससे वायु का ताप भी घट जाता है ।

(2) शुष्क बर्फ (dry ice) बनाने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड को अचानक प्रसारित किया जाता है जिससे वह ठंडा होकर बर्फ में बदल जाता है । इसे ही शुष्क बर्फ कहते हैं ।

(3)यदि थरमस में भरी चाय को तेजी से हिलाया जाए तो वह गर्म हो जाती है । इसका कारण यह है कि हिलाने से चाय की परतों के बीच उपस्थित श्यान बलों के विरुद्ध कार्य किया जाता है जिससे चाय की आंतरिक ऊर्जा बढ़ जाती है और फलस्वरुप चाय का ताप बढ़ जाता है ।

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