Vrhattar Bharat kise kahate Hain

वृहत्तर भारत किसे कहते हैं ?

Vrhattar Bharat kise kahate Hain

वृहत्तर भारत का इतिहास

प्राचीन भारतीय इतिहास का एक रोचक पक्ष भारत की सीमाओं से परे के देशों के जीवन और संस्कृति पर भारत का प्रभाव होना है । इन देशों में भारतीय दर्शन और विचार का प्रवेश हुआ, जिसके फलस्वरूप वहाँ भारतीय संस्कृति पल्लवित हुई और वह इस प्रकार का वृहत्तर भारत बन गया ।

विश्व में अनेक देश है जहाँ हमारे देश की संस्कृति का प्रभाव उनके समाज के हर क्षेत्र में आज भी दिखता है । इन देशों के साथ हमारे संबंध हजारों साल पहले ही बन चुके थे ।

भारतीय संस्कृति और सभ्यता का प्रचार –

(1) संस्कृति व ज्ञान- विज्ञान

  • भारत की सभ्यता व संस्कृति विश्व में उन्नत रही है । सम्राट हर्ष के काल तक भारत कला, साहित्य, शिक्षा और विज्ञान में संपूर्ण विश्व में आगे था , इसलिए प्राचीन काल में भारत विश्व गुरु कहलाता था ।
  • भारत में नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला और गया के विश्वविद्यालय शिक्षा के बड़े केंद्र थे ।
  • भारत के अलावा चीन, जापान, तिब्बत,श्रीलंका, कोरिया, मंगोलिया आदि देशों के विद्यार्थी भी यहाँ ज्ञान प्राप्त करने आते थे ।
  • भारत की प्रसिद्ध सुनकर अनेक विदेशी यात्री भी इस काल में यहाँ आए । उनमें फाह्यान, ह्वेनसांग और इत्सिंग नामक चीनी यात्री प्रमुख थे । ये सब विदेशों में भारतीय संस्कृति के संवाहक थे । इन्होंने यहाँ रहकर हमारे ज्ञान- विज्ञान का अध्ययन किया । उन्होंने भारतीय ग्रंथों का अपनी भाषा में अनुवाद किया ।
  • प्राचीन समय में भारत में उद्योग एवं व्यापार अपने चरम सीमा पर थे । यहाँ का बहुत सा माल विदेशों में निर्यात किया जाता था । यह व्यापार जमीन व समुंद्र दोनों ही रास्तों से होता था ।
  • भारत से मलमल, छींट, रेशम व जरी के वस्त्र, नील, गरम मसाले, लोह इस्पात की वस्तुएं आदि भारी मात्रा में निर्यात की जाती थी ।
  • यह माल जावा- सुमात्रा आदि दक्षिण- पूर्वी एशियाई देशों तथा पश्चिम व मध्य एशिया से आगे तक भेजा जाता था ।
यह भी जानें – अग्नि पुराण के अनुसार जम्बूदीप से अलग एक “द्वीपान्तर भारत” का अविर्भाव हुआ । यही भाव आधुनिक शब्द इंडोनेशिया से अभिव्यक्त होता है ।

नेशिया का अर्थ द्वीप है , इसलिए इंडोनेशिया का अर्थ “भारतीय द्वीप” होता है । यह एक इस्लामिक देश है जहाँ भारतीय संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है ।

  • बर्मा, स्याम, मलय प्रायद्वीप, कंबोडिया, सुमात्रा, जावा, बोर्निया, बाली, अन्नाम, सुवर्णदीप, हिंद- चीन आदि स्थानों पर भारतीय भाषा, साहित्य, धर्म कला आदि के प्रभाव वहाँ के जन- जीवन में आज भी देखने को मिलते हैं ।
  • इन स्थानों पर मिलने वाले प्राचीन अवशेषों से वहाँ की संस्कृति और जनजीवन पर भारत के गहरे प्रभाव और संबंधों का पता चलता है । साथ ही भारत की सभ्यता और संस्कृति के विस्तार का भी पता चलता है ।
  • कंबोडिया के नंगे रहने वाले अर्द्ध जंगली लोगों से लेकर सभ्यता की आदिम अवस्था से आगे बढ़ जाने वाले जावा के निवासियों तक उसमें शामिल थे । इन सब ने भारतीय सभ्यता की विशेषताओं को अनुभव किया और वह बहुत बड़ी सीमा तक उसे अपना लिया ।
  • भारत की भाषा, साहित्य, धर्म, कला और राजनीतिक तथा सामाजिक संस्थाओं ने इन लोगों पर सांस्कृतिक प्रभाव जमाया और वहाँ की स्थानीय संस्कृति के साथ मिलकर एक नई संस्कृति को जन्म दिया ।

(2) भाषा और साहित्य

  • संस्कृत में लिखे गए अभिलेख बर्मा, स्याम, मलय प्रायद्वीप, कंबोडिया, अन्नाम, सुमात्रा, जावा और बोर्नियो में पाये गए हैं ।
  • इनमें से सबसे प्राचीन लेख ईसा की दूसरी- तीसरी शताब्दी के हैं । वहाँ संस्कृत का प्रयोग हजार वर्षों से अधिक काल तक होता रहा । हिंद- चीन के अधिकांश भागों में आज भी पालि भाषा जो संस्कृत से निकली हुई है ,दैनिक प्रयोग में आती है ।
  • चम्पा में 100 से अधिक संस्कृत अभिलेख मिले हैं ।
  • कंबोज में मिली अभिलेखों की संख्या न केवल इनसे अधिक है वरन् वे साहित्य की दृष्टि से भी उच्च कोटि के हैं । वे सुंदर काव्य शैली में लिखे गए हैं ।
  • यशोवर्मन के चार अभिलेख क्रमश: 50,75, 93 और 108 छन्दों के हैं ।
  • राजेंद्रवर्मन का एक लेख 218 छन्दों और दूसरा 268 छंदों का है ।
  • इन अभिलेखों में वेद, वेदांत, स्मृति तथा ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धार्मिक ग्रंथों, रामायण ,महाभारत, काव्य, पुराण ,पाणिनि के व्याकरण और पंतजलि के महाभाष्य तथा मनु , वात्स्यायन, विशालाक्ष,सुश्रुत,प्रवरसेन,मयूर और गुणाठ्य की रचनाओं के अध्ययन का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है ।
  • चम्पा के 3 नरेशों के विद्वान होने का उल्लेख मिलता है । उनमें से एक तो चारों वेदों का ज्ञाता था ।
  • कम्बुज नरेश यशोवर्मन के बारे में कहा जाता है कि वह शास्त्र और काव्यों का रसिक था ।
  • जावा में लोगों ने न केवल संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया वरन् उन्होंने स्वत: विस्तृत साहित्य का सृजन भी किया । महत्वपूर्ण रचनाओं में रामायण और महाभारत का जावी भाषा में गद्य अनुवाद उल्लेखनीय है ।
  • बौद्ध पालि साहित्य के संबंध में बर्मा और सिंहल पर चरितार्थ होती है । इन दोनों देशों में बौद्ध धर्म ग्रंथों में पालि भाषा अपनायी गई , जिसने वहाँ नये साहित्य को जन्म दिया और आज तक वह निरंतर चली आ रही है ।
यह भी जानें-

  • भारत और चीन के संबंधों का लंबा इतिहास दूसरी शती ई.पू. से प्रारंभ होता है । भारत के विभिन्न भागों से चीन में जाकर अनेकानेक भारतीय विद्वानों ने संस्कृत ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया ।
  • बौधिरुचि नामक विद्वान 693 ईसवी में चालुक्य राजसभा में नियुक्त चीनी राजदूत के साथ नालंदा से चीन गया । उसने 53 ग्रंथों का अनुवाद किया ।
  • तिब्बत प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति के प्रभाव में रहा है । नेपाल से शांति- रक्षित और उद्यान से पद्मसंभव नामक विद्वान तिब्बत पहुंचे और उन्होंने वहाँ तिब्बती लामा धर्म की नींव रखी ।
  • उन्होंने वहाँ संस्कृत ग्रंथों का प्रचार किया, साथ ही उनका अनुवाद करने के लिए वहाँ विद्वान तैयार किए।

(3) धर्म

  • बर्मा और स्याम में बौद्ध धर्म प्रधान था । जहाँ बौद्ध धर्म प्रधान था वहाँ सभी हिंदू देवी- देवताओं की मूर्तियां भी पाई गई है ।
  • यद्यपि त्रिमूर्ति अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा प्रचलित थी, परंतु शिव की पूजा मुख्य रूप से होती थी ।
  • जावा की बहुत लोकप्रिय मूर्ति “भटार गुरु” है । इस मूर्ति की लोकप्रियता देखकर अनुमान लगाया जाता है कि शायद हिन्देशिया के कोई मूल देवता इसमें मिल गये हो ।
  • कम्बुज के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अनेक विद्वान लोग भारत से कम्बुज जाते थे और वहाँ सम्मान प्राप्त करते थे ।
  • शिवसोम कम्बुज के राजा इंद्रवर्मन के गुरु थे । इन्होंने भगवत् शंकर, जो शंकराचार्य हो सकते हैं, के साथ शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था ।
  • दूसरी मुख्य विशेषता आश्रमों की संख्या है ,जो सारे कम्बुज में फैली थी । राजा यशोवर्मन ने 100 आश्रम स्थापित किए थे ।

(4) समाज

  • वर्ण व्यवस्था जो भारतीय सभ्यता एवं समाज का मूल आधार था, वह भारतीय संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में हुए प्रसार के कारण वहाँ भी स्थापित हुई ।
  • बाली और कम्बोज के निवासियों में जो जाति व्यवस्था का स्वरूप आज दिखता है ,उसे हम भारत की प्राचीन वर्ण व्यवस्था का उदाहरण समझ सकते हैं ।
  • विवाह का आदर्श ,विभिन्न प्रकार की रस्मे, उनका स्वरूप और वैवाहिक संबंध लगभग भारत के समाज की तरह ही थे ।
  • सती- प्रथा भी प्रचलित थी । भारत के प्राचीन समाज की तरह ही वहाँ भी पर्दा- प्रथा नहीं थी । भारत की ही तरह स्त्री को अपना पति चुनने का अधिकार था ।
  • जुआ, मुर्गों की लड़ाई ,संगीत, नृत्य और नाटक लोगों के मनोरंजन के प्रमुख साधन थे ।
  • जावा में नाटक का लोकप्रिय रूप “छाया नाट्य” है जो “वयंग” कहलाता है ।
  • “वयंग” के कथानक मुख्यतः रामायण व महाभारत से लिए गए हैं ।
  • जावा निवासियों द्वारा इस्लाम धर्म मानने के बावजूद आज भी यह खेल वहाँ उतने ही लोकप्रिय एवं प्रचलित है, जो भारतीय संस्कृति की व्यापकता का परिचायक है ।
  • भारत की तरह ही वहाँ के समाज का मुख्य खाद्य चावल और गेहूं ही था । वहाँ पान खाना भी प्रचलन में था ।
  • आभूषण व वस्त्रों का पहनने का प्रकार भी भारत की ही तरह था ।

(5) कला

जहाँ- जहाँ भारतीय संस्कृति का प्रभाव रहा, भारत की तरह वहाँ सभी जगह कला भी धर्म से प्रभावित रही है ।

(१) जावा के मंदिर –

  • जावा का सबसे महत्वपूर्ण वास्तुशिल्प वहाँ का ‘बरोबोदूर’ मंदिर है , जो 750 से 850 ईसवी के बीच शेलेन्द्रों के सरंक्षण में बना था ।
  • इस भव्य भवन में एक के ऊपर एक 9 मंजिलें बनी हुई है तथा सबसे ऊपर एक घंटानुमा स्तूप है ।
  • “बरोबोदूर” की दूसरी उल्लेखनीय विशेषता इसके बरामदों में बनी मूर्तियों की पंक्तियाँ हैं । मूर्तियों की पंक्तियों की कुल 11 श्रृंखलाएँ है और कुल संख्या लगभग 1500 है ।
  • “बरोबोदूर” की बुद्ध की मूर्तियाँ और “मेनदूत” की बोधिसत्व मूर्तियाण की स्वतंत्र मूर्तियां जावा की मूर्तिकला के सुन्दरतम नमूनों में मानी जा सकती है ।
  • चेहरे पर दैवी का अध्यात्मिक भाव इन मूर्तियों की प्रमुख विशेषता है । नि:संदेह भारत की गुप्तकालीन मूर्तिकला से ही इन मूर्तियों की रचना करने की प्रेरणा प्राप्त हुई होगी ।
  • जावा का दूसरा मंदिर वहाँ की प्रम्बनन की घाटी में स्थित “लारो- जंगरंग” मंदिर है । इसमें 8 मुख्य मंदिर हैं । उनमें शिव की मूर्ति प्रतिष्ठित है ।
  • उसके उत्तर के मंदिर में विष्णु की और दक्षिण के मंदिर में ब्रह्मा की मूर्ति है । इसके बरामदे के भीतरी भाग में उत्कीर्ण मूर्तियों के 42 फलक है , जिनमें रामायण के आरंभ से लेकर लंका पर आक्रमण तक के दृश्य अंकित है ।
  • हम कह सकते हैं कि “बरोबोदूर” और “लोरो-जंगरंग” जावा और भारतीय कला के शास्त्रीय और रोमांचक स्वरूपों को व्यक्त करते हैं ।

(२) कम्बुज के मंदिर –

  • कम्बुज में ‘अंगकोर’ नामक स्थान के आरंभिक वास्तुशिल्पों में कुछ मंदिर है , जिनकी भारतीय मंदिरों से बहुत कुछ साम्यता है ।
  • इस मंदिर के मध्य और किनारे के शिखर उत्तर भारतीय शैली के हैं । इस ढंग का सर्वोत्तम और पूर्ण नमूना अंगकोरवाट में विष्णु मंदिर है ।
  • शिखरों को चारों दिशाओं की ओर मुँह किये मुंडो द्वारा ढककर एक नवीनता उत्पन्न की गई है ।
  • मंदिरों और नगरों के चारों और गहरी खाई , उसके ऊपर पुलनुमा रास्ता और रास्ते के दोनों और साँप के शरीर को खींचते हुए दैत्यों की शक्लें बनी हुई है , जो पुल के जंगले का काम करती है ।
  • इस मंदिर की चारदीवारी के बाहर 650 फीट चौड़ी खाई है एवं 36 फीट चौड़ा पत्थर का रास्ता है । खाई मंदिर के चारों ओर है ,जिसकी लंबाई लगभग 2 मील है ।
  • पश्चिम फाटक से पहले बरामदे तक की सड़क 1560 फीट लंबी और 7 फीट ऊंची है ।
  • अंतिम मंजिल का केंद्रीय शीर्ष जमीन से 210 फीट की ऊंचाई पर है ।

(३) बर्मा के मंदिर –

  • बर्मा में सर्वोत्तम मंदिर पेगन का “आनन्द मंदिर” है ।
  • यह 564 वर्ग फीट के चौकोर आँगन के बीच में स्थित है ।
  • मुख्य मंदिर ईटों का बना हुआ और वर्गाकार है ।
  • यहाँ पर उत्कीर्ण पत्थर की असंख्य मूर्तियों और दीवार पर लगे मिट्टी के चमकीले फलक है ।
  • पत्थर की उत्कीर्ण मूर्तियों की संख्या 80 है और उनमें बुद्ध के जीवन की मुख्य घटनाएं अंकित है ।
  • यह मंदिर भारतीय शैली में ही विकसित हुआ है तथा इस प्रकार के मंदिर बंगाल में पाए जाते हैं ।
  • निश्चित रूप से ऊपर वर्णित विभिन्न बिंदुओं को पढ़ने के बाद हमने जाना कि भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं का विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में गहरा प्रभाव रहा है तथा यह प्रभाव वहाँ के सामाजिक जीवन पर आज भी दृष्टिगोचर हो रहा है ।
  • इसके अलावा सूरीनाम, ईरान एवं कई अफ्रीका के देशों पर भी हमारी संस्कृति का गहरा प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है ।
शब्दावली
हिन्देशिया – जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, बाली आदि दीप समूह

हिंद- चीन -पूर्वी एशिया की वियतनाम ,कंबोडिया आदि राष्ट्र

कम्बुज – कम्बोडिया

स्याम – थाईलैंड

चम्पा – अन्नाम्

बर्मा – म्यांमार

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