Maharana Pratap History in Hindi

महाराणा प्रताप (Maharana Pratap History in Hindi) का इतिहास

आज हम सिसोदिया वंश के महाराणा प्रताप (Maharana Pratap History in Hindi) के इतिहास की बात करेंगे ।

महाराणा प्रताप का इतिहास ( History of Maharana Pratap)

महाराणा प्रताप ( 1572-1597 ई.)

  • वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग में स्थित कटारगढ़ के बादल महल में हुआ । महाराणा प्रताप को मेवाड़ केसरी कहा जाता है । महाराणा प्रताप को बचपन में कीका (पहाड़ी बच्चा) के नाम से जाना जाता था ।
  • महाराणा प्रताप के पिता का नाम महाराणा उदयसिंह तथा माता का नाम जयवंता बाई ( पाली के सोनगरा अखैराज की पुत्री ) था । अजमादे पँवार , महाराणा प्रताप की पत्नी थी ।
  • उदयसिंह ने अपनी जेष्ठ पुत्र महाराणा प्रताप के स्थान पर धीर बाई के पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया , लेकिन सोनगरा अखैराज व ग्वालियर के रामसिंह ने इसका विरोध किया तथा 1 मार्च 1572 को उदयपुर के गोगुंदा में महाराणा प्रताप को राज्य सिंहासन पर बिठाया ।
  • सोनगरा अखैराज व प्रमुख सरदारों की सहमति से महाराणा प्रताप 32 वर्ष की अवस्था में कुंभलगढ़ दुर्ग के शासन पर बैठे । जगमाल रुष्ट होकर बादशाह अकबर के पास चला गया । बादशाह अकबर ने उसे जहाजपुर का परगना जागीर में दिया ।
  • स्वाभिमानी महाराणा प्रताप ने अपने संस्कारों एवं विचारों से पहले विकल्प अर्थात् ‘मुगलों से संघर्ष’ को ही अपना ध्येय बनाया । वे अपनी सेना को संगठित करने एवं मुगलों द्वारा जीते हुए प्रदेशों को पुनः प्राप्त करने में लग गये ।
  • मेवाड़ के तीन महाराणा – उदयसिंह,महाराणा प्रताप सिंह और अमरसिंह अकबर के समकालीन थे । तीनों को अकबर की शत्रुता का सामना करना पड़ा । तीनों ने अपने गौरव और अपने राज्य की स्वाधीनता के लिए अकबर से संघर्ष किया और तीनों में से एक से भी अकबर अपनी अधीनता स्वीकार नहीं करा सका ।

अकबर द्वारा प्रताप से समझौते के प्रयत्न :-

सम्राट अकबर की पहल पर 1572-73 में महाराणा प्रताप से समझौते के 4 प्रयत्न हुए, जो क्रमवार निम्न प्रकार है –
(१) सम्राट का पहला प्रतिनिधि मुगल दरबारी जलालखान कोरची था, जिसे नवम्बर 1572 में महाराणा प्रताप के पास भेजा गया ।
(२) इसके बाद जून 1573 में आमेर के कुँवर मानसिंह को भेजा गया ।
(३) सितंबर 1573 में मानसिंह के पिता आमेर के राजा भगवन्तदास को भेजा गया ।
(४) इसके बाद अंतिम प्रयत्न के रूप में मुगल दरबार का प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ,जो नवरत्नों में शामिल राजा टोडरमल को दिसम्बर ,1573 भेजा गया ।

लेकिन सभी दूत महाराणा प्रताप को राजी करने में असफल रहे एवं वे महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार करने हेतु न मना सके ।

हल्दीघाटी का युद्ध ( 21 जून 1576 ई.)

  • संधि के सभी प्रयास विफल हो जाने पर अन्तत: अकबर ने कुँवर मानसिंह के नेतृत्व में शाही सेना को महाराणा प्रताप पर आक्रमण करने हेतु अजमेर से रवाना किया । कुँवर मानसिंह ने सेना सहित पूर्वी मेवाड़ में स्थित मांडलगढ़ में डेरा डाला । यहाँ से मानसिंह युद्ध की समस्त तैयारियाँ कर शाही सेना के साथ मोही गाँव पहुँचे । मानसिंह के जीवन की यह पहली लड़ाई थी , जिसमें वह स्वयं सेनापति बने थे ।
  • मानसिंह के मांडलगढ़ पहुंचने का समाचार सुनकर महाराणा प्रताप सेना सहित कुंभलगढ़ से गोगुंदा आ गये । उन्होंने मेरपुर के शासक व भीलों के सरदार राणा पुंजा को मेवाड़ की रक्षा का भार सौंपा ।
  • मानसिंह की सेना ने मोही गाँव से खमनोर के पास हल्दीघाटी से कुछ दूर बनास के तट पर डेरा डाला । महाराणा प्रताप मेवाड़ की सेना के साथ गोगुंदा से रवाना हुए और खमनोर से 10 मील दक्षिण- पश्चिम में लोसिंग गाँव पहुँचे ।
  • हल्दीघाटी राजसमंद जिले में नाथद्वारा से 11 मील दक्षिण पश्चिम में गोगुंदा और खमनोर के बीच एक संकरा स्थान है । यहाँ की मिट्टी के हल्दी के समान पीली होने के कारण उसका नाम हल्दीघाटी पड़ा ।
  • महाराणा प्रताप व अकबर की सेनाओं के मध्य खमनोर गांव के पास की तंगघाटी व समतल भूमि हल्दीघाटी के मैदान में 21 जून 1576 को ‘हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध‘ हुआ ।
  • महाराणा प्रताप की सेना के सबसे आगे के भाग का नेतृत्व एकमात्र मुस्लिम सेनापति हकीम खान सूर पठान के हाथों में था । मानसिंह की सेना की मुख्य अग्रिम पंक्ति का संचालन आसफ खान और जगन्नाथ कछवाहा कर रहे थे । इस युद्ध में शाही सेना के साथ अकबर का आश्रित प्रमुख इतिहासकार अलबदायूँनी भी उपस्थित था, जिसने पुस्तक ‘मुंतखाब-उत-तवारीख‘ की रचना की ।

हल्दीघाटी के युद्ध के अन्य नाम :-

(१) थर्मोपल्ली का युद्ध – कर्नल टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध को मेवाड़ की थर्मोपल्ली तथा प्रत्येक नगर के लड़ाकू को लियोनिडास कहा है ।

(२) खमनौर का युद्ध – राजसमंद जिले में बनास नदी के तट पर स्थित खमनौर स्थान पर हल्दीघाटी के दर्रे के बाहर यह युद्ध हुआ , इस स्थान विशेष के कारण हल्दीघाटी का युद्ध खमनौर का युद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुआ । अबुल फजल ने हल्दीघाटी के युद्ध को खमनौर का युद्ध कहा ।

(३) अनिर्णित युद्ध – गोपीनाथ शर्मा ने कहा ।

(४) बनास का युद्ध

(५) हाथियों का युद्ध
मरदाना – हल्दीघाटी में मानसिंह के हाथी का नाम ।
हवाई – हल्दीघाटी में अकबर के हाथी का नाम ।
रामप्रसाद – महाराणा प्रताप का सबसे प्रसिद्ध हाथी , युद्ध के दौरान यह हाथी मुगल सेना के हाथ गया था । अकबर ने हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात रामप्रसाद का नाम बदलकर पीर प्रसाद कर दिया ।

अन्य हाथी – गजमुक्त , लूणा , गजराज , राजमुत्ता ।

(६) गोगुंदा का युद्ध – बदायूँनी ने कहा ।

हल्दीघाटी से संबंधित :-

महाराणा प्रताप – सिसोदिया सेना का जनरल

पूँजा भील – भील नेता

मानसिंह – मुगल सेनानायक

आसफ खाँ – अकबर की सेना का जनरल

बदायूँनी – अकबर का साहित्यकार , हल्दीघाटी के युद्ध में उपस्थित था ।

झाला बीदा – पूर्व सादड़ी के सरदार , इन्होंने युद्ध में महाराणा प्रताप के प्राण संकट में देखकर उनके सिर से राजकीय छत्र उतार कर अपने सिर पर धारण कर लिया , शत्रुओं ने उन्हें महाराणा प्रताप समझ कर मार डाला और महाराणा प्रताप के प्राण बच गए ।

मिहत्तर खाँ – मानसिंह का सैनिक अधिकारी , भागते हुए मुगल सैनिकों को अकबर के आगमन की झूठी खबर फैलाकर पुन: संगठित किया ।

शक्तिसिंह – इनका जन्म महाराणा उदयसिंह की सोलंकी रानी सजना बाई से हुआ । यह महाराणा प्रताप का अनुज था । हल्दीघाटी के युद्ध में पहले वह अकबर की सेना में था , परंतु महाराणा प्रताप को कष्ट में देखकर महाराणा प्रताप का सहयोग किया और उनकी रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । शक्तिसिंह के वंशज शक्तावत कहलाए ।

हकीम खां सूरी – महाराणा प्रताप का पठान सेनानायक तथा प्रताप सेना का कमांडर । हल्दीघाटी के युद्ध में हकीम खां सूरी एकमात्र मुस्लिम सेनापति था जो हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ ।

नसीरूद्दीन – महाराणा प्रताप के दरबार का प्रमुख चित्रकार ।

बलीचा गाँव – यहां महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का स्मारक बना हुआ है, जो छतरी के नाम से जाना जाता है । महाराणा प्रताप को ‘नीला घोड़ा रा असवार ‘ भी कहा जाता है ।

  • हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप कोल्यारी गाँव पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपना इलाज करवाया । कोल्यारी से महाराणा प्रताप कुंभलगढ़ आ गये । कुंभलगढ़ पहुँचने के बाद प्रताप ने अपने सैन्य संगठन को फिर से सुदृढ़ करना आरंभ किया व उसे अपनी राजधानी बनाया ।
  • अकबर ने प्रताप को मृत या जीवित पकड़कर न लाने के कारण मानसिंह और आसफ खाँ को कुछ समय के लिए दरबार में आने से रोक दिया ।
  • महाराणा प्रताप ने गुरिल्ला (छापामार) युद्ध पद्धति अपना कर अपने सारे क्षेत्र जीत लिए । महाराणा प्रताप ने मुगल सेनानायक मुजाहिद बेग को मारकर फिर से गोगुंदा पर अपना अधिकार स्थापित किया । उन्होनें गोगुंदा की रक्षा के लिए मांडण कूंपावत को तथा कुंभलगढ़ की रक्षा के लिए महता नरबद को नियुक्त किया ।

कुंभलगढ़ दुर्ग :- हल्दीघाटी के युद्ध की समाप्ति के पश्चात महाराणा प्रताप का मुगलों से संघर्ष का मुख्य केंद्र कुंभलगढ़ दुर्ग था । अकबर के सेनापति शाहबाज खाँ ने महाराणा प्रताप के सेनापति मानसिंह सोनगरा को 3 अप्रैल 1578 ईसवी को पराजित किया । यह पहली बार हुआ जब किसी ने इस अजय दुर्ग (कुंभलगढ़ दुर्ग) को जीता । कर्नल जेम्स टॉड ने कुंभलगढ़ दुर्ग के लिए हुए इस युद्ध को ‘सार्वभौमिक स्थल का युद्ध‘ कहा है ।

भामाशाह – महाराणा प्रताप के प्रधानमंत्री । इनका जन्म 28 जून 1547 ईसवी को रणथंबोर में हुआ , जबकि वो पाली के निवासी थे । 1580 ई. में चूलिया ग्राम में महाराणा प्रताप को 20,000 स्वर्ण मुद्राएं आर्थिक सहायता के रूप में दी । भामाशाह को मेवाड़ का दानवीरमेवाड़ का रक्षक कहा जाता है ।

दिवेर का युद्ध ( अक्टूबर, 1582 ) :-

महाराणा प्रताप मेवाड़ की भूमि को मुक्त कराने का अभियान दिवेर से प्रारंभ किया । दिवेर वर्तमान राजसमंद जिले में उदयपुर-अजमेर मार्ग पर स्थित है । महाराणा प्रताप ने मुगल सूबेदार सेरिमा सुल्तान खाँ पर आक्रमण कर उसे पराजित किया । दिवेर का युद्ध महाराणा प्रताप का विजय का प्रतीक माना जाता है । कर्नल जेम्स टॉड ने दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मैराथन कहा है ।

महाराणा प्रताप के विरूद्ध अकबर द्वारा भेजे गए सैन्य अभियान –

मानसिंह (1576 ई.) , भगवानदास, मान सिंह एवं कतुबुद्दीन खाँ ( 1576 ई.), अकबर (1576 ई.), शाहबाज खाँ (3 अप्रैल 1578 , 15 दिसंबर 1578 , 15 नवंबर 1579 ) , अब्दुर्रहीम खानखाना ( दिसंबर 1580 ), जगन्नाथ कछवाहा ( 5 दिसंबर 1584 , अकबर का महाराणा प्रताप के विरुद्ध अंतिम अभियान )

चावंड :- महाराणा प्रताप ने दिवेर की जीत के बाद 1585 में स्थायी जीवन का आरंभ चावंड ( चामुण्डी नदी के पूर्वी किनारे स्थित ) को मेवाड़ की नयी राजधानी स्थापित करके किया । अगले 28 वर्षों तक मेवाड़ की राजधानी रही । यहाँ महाराणा प्रताप ने चामुंडा माता का मंदिर बनवाया ।

बांडोली (उदयपुर ) – चावंड के निकट स्थित इस स्थान पर 19 जनवरी 1597 को महाराणा प्रताप का निधन हुआ । यहीं पर उनका अंतिम संस्कार किया गया , जहाँ 8 खंभों की छतरी के रूप में उनका शाही स्मारक स्थित है ।

महत्वपूर्ण तथ्य :-

➡ महाराणा प्रताप के काल में लिखे गये ग्रंथों में चक्रपाणि मिश्र द्वारा रचित ‘विश्वबल्लभ’ ग्रंथ एवं ‘मुहुर्तमाला’ , ‘राज्याभिषेक पद्धति’ , जैन मुनि हेमरतन सूरि द्वारा रचित ‘गोरा बादल पद्मिनी चरित चौपाई’ , ‘सीता चौपाई’ , ‘महिपाल चौपाई’ , ‘अमर कुमार चौपाई ‘ , ‘लीलावती हेमरतन चौपाई ‘ आदि प्रमुख है ।

➡ राजस्थान के पाली जिले के जैतारण में 1538 में जन्में तथा अकबर के दरबारी कवि दूरसा आढ़ा ने महाराणा प्रताप पर ‘विरूद छतहरी’ तथा चारण कवि माला सांदू ने ‘झूलणा’ लिखे हैं ।

➡ महाराणा प्रताप द्वारा बदराका नामक स्थान पर हरिहर मंदिर बनवाया गया ।

अहेड़ा का शिकार – रियासत काल में राजपूतों में होली के दिन शिकार खेलने जाने का प्रचलन ।

हुसैन खाँ – अकबर की सेना में हाथियों का दरोगा ।

भँवर – राजपूताना में राजाओं , सरदारों आदि के पौत्रो को उनके दादा की जीवित अवस्था में भँवर कहते थे ।

कन्हैयालाल सेठिया :- राजस्थानी भाषा के भीष्म पितामह कहलाते हैं । इनका जन्म राजस्थान के चुरू जिले के सुजानगढ़ शहर में हुआ । उनके द्वारा लिखी गई कृति – पीथल और पाथल ( यहां पीथल से तात्पर्य अकबर के कवि पृथ्वीराज राठौड़ से हैं और पाथल से तात्पर्य महाराणा प्रताप से है ) ।

द्विजेन्दा लाल – 1905 में द्विजेन्दा लाल ने प्रतापसिंह नामक नाटक प्रकाशित किया ।

➡ महाराणा प्रताप ने लूणां चावण्डिया को परास्त कर चावंड को अपनी राजधानी बनाया ।

➡ महाराणा प्रताप ने अपनी मृत्यु से पूर्व चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ को छोड़कर शेष पुरे मेवाड़ पर अपना अधिकार कर लिया ।

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