शिवाजी के उत्तराधिकारी

शिवाजी के उत्तराधिकारी | पेशवाओं का इतिहास ( Peshwa History in Hindi)

शम्भाजी ( 1680-1689 ई.)

  • शिवाजी की मृत्यु के बाद शिवाजी के उत्तराधिकारी शम्भाजी हुए । शम्भाजी ने उज्जैन के हिंदी एवं संस्कृत के प्रकांड विद्वान कवि कलश को अपना सलाहकार नियुक्त किया ।
  • 1681 ई. में औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर को शम्भाजी ने शरण दी ।
  • 11 मार्च 1689 ई. में औरंगजेब का सेनापति मखर्रब खाँ ने संगमेश्वर में छिपे हुए शम्भाजी और कवि कलश को गिरफ्तार कर लिया और उसकी हत्या कर दी ।
  • मुगलों ने शम्भाजी की मृत्यु के बाद राजधानी रायगढ़ पर कब्जा कर लिया तथा उसके पुत्र साहू और पत्नी येसूबाई को गिरफ्तार कर रायगढ़ के किले में कैद करवा दिया ।

राजाराम ( 1689-1700 ई.)

  • शम्भाजी की मृत्यु के बाद उसके सौतेले भाई राजाराम को मराठा मंत्रिपरिषद ने राजा घोषित किया । फरवरी 1689 ई. में रायगढ़ में उसका राज्याभिषेक हुआ ।
  • राजाराम ने अपने को शाहू का प्रतिनिधि माना तथा गद्दी पर कभी नहीं बैठा । उसने मराठा सरदारों को अपनी सेना रखने तथा अपने क्षेत्र में स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करने की छूट दी ।
  • संताजी घोरपड़े एवं धन्नाजी जादव जैसे बहादुर सेनापतियों का सहयोग कुछ समय के लिए राजाराम को मिला ।
  • 1689 ई . में राजाराम मुगलों के आक्रमण की आशंका से रायगढ़ छोड़कर जिंजी भाग गया । जिंजी के बाद 1699 से सतारा मराठों की राजधानी बनी ।
  • राजाराम मुगलों से संघर्ष करता हुआ 2 मार्च 1700 ई. में मारा गया ।

शिवाजी द्वितीय तथा ताराबाई ( 1700-1707 ई.)

  • राजाराम की मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी ताराबाई ने अपनी 4 वर्षीय पुत्र को शिवाजी द्वितीय के नाम से गद्दी पर बिठाया और मुगलों से स्वतंत्रता संघर्ष जारी रखा ।
  • उसने रायगढ़, सातारा तथा सिंहगढ़ आदि किलों को मुगलों से जीत लिया ।

शाहू ( 1707-1713 ई.)

  • औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्र आजमशाह ने 8 मई 1707 ई. को शाहू को कैद से मुक्त कर दिया , परंतु कैद से मुक्त होने के बाद जब शाहू सतारा पहुंचे तब तक ताराबाई ने शिवाजी द्वितीय को छत्रपति घोषित कर दिया था ।
  • 12 अक्टूबर 1707 ई. में शाहू तथा ताराबाई के मध्य ‘खेड़ा का युद्ध’ हुआ , जिसमें शाहू, बालाजी विश्वनाथ की मदद से विजय हुआ ।
  • 1708 ईस्वी में शाहू ने सातारा पर अधिकार कर लिया । अब मराठा राज्य दो विरोधी उपराज्य में विभक्त हो गया । एक राज्य सातारा के प्रमुख शाहू थे और दूसरे राज्य कोल्हापुर के प्रमुख शिवाजी द्वितीय या ताराबाई थी ।
  • शिवाजी द्वितीय की मृत्यु के बाद राजाराम का दूसरा पुत्र शम्भाजी द्वितीय कोल्हापुर की गद्दी पर बैठा । इन 2 प्रतिनिधि शक्तियों (सतारा तथा कोल्हापुर ) के मध्य शत्रुता का अन्तत: 1731 ई. वार्ना की सन्धि के द्वारा समाप्त हुआ ।
  • 1708 ई. में शाहू ने बालाजी विश्वनाथ को सेना का व्यवस्थापक बनाया तथा 1713 ई. को बालाजी विश्वनाथ को पेशवा बना दिया गया ।

पेशवाओं का इतिहास ( Peshwa History in Hindi)

बालाजी विश्वनाथ ( 1713- 1720 ई.)

  • बालाजी विश्वनाथ एक ब्राह्मण था । उसने अपना जीवन एक छोटे राजस्व अधिकारी के रूप में प्रारंभ किया था ।
  • 1699 से 1708 बालाजी धनाजी जादव की सेवा में रहे । 1708 में धनाजी जादव की मृत्यु के बाद उसके पुत्र चंद्र सेन जादव के ताराबाई के पक्ष में मिल जाने पर बालाजी विश्वनाथ को शाहू की सेवा में आने का अवसर प्राप्त हुआ ।
  • शाहू ने बालाजी विश्वनाथ को 1708 ई. में सेनाकर्ते (सेना का व्यवस्थापक) की पदवी दी तथा नई सेना के गठन व देश में शांति व्यवस्था व सुव्यवस्था की स्थापना का कार्य सौंपा ।
  • बालाजी विश्वनाथ की सेवा से प्रसन्न होकर 1713 ई. में शाहू ने बालाजी विश्वनाथ को पेशवा बना दिया ।
  • 1719 में बालाजी विश्वनाथ एवं सैयद हुसैन अली के बीच हुई सन्धि का मुख्य कारण फर्रूखसियर को गद्दी से हटाना था ।
  • मराठा मुगल संधि ( बालाजी विश्वनाथ एवं सैयद हुसैन अली) की शर्तों को मान्यता रफीउदरजात ने दी थी ।
  • 1719 में बालाजी विश्वनाथ मराठों की एक सेना लेकर सैयद बन्धुओं की मदद के लिए दिल्ली पहुंचे ,जहाँ उन्होंने बादशाह फर्रूखसियर को हटाने में सैयद बन्धु की मदद की ।
  • इतिहासकार रिचर्ड टेम्पेल ने मुगल सूबेदार हुसैन अली तथा बालाजी विश्वनाथ के बीच 1719 में हुई सन्धि को मराठा साम्राज्य के मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी है ।

बाजीराव प्रथम ( 1720-1740 ई.)

  • बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद शाहू ने उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा नियुक्त किया । इस प्रकार बालाजी विश्वनाथ के परिवार में पेशवा पद वंशानुगत हो गया ।
  • पेशवा बाजीराव प्रथम मुगल साम्राज्य की कमजोर हो रही स्थिति का फायदा उठाने के लिए शाहू को उत्साहित करते हुए कहा कि आओ, “हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखाएँ तो स्वयं गिर जाएगी, हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी । उत्तर में शाहू ने कहा- निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देंगे , नि:सन्देह “आप योग्य पिता के योग्य पुत्र” हैं ।
  • 23 जून 1724 ईसवी में शूकरखेड़ा के युद्ध में मराठों की मदद से निजामुल-मुल्क ने दक्कन के मुगल सूबेदार मुखारिज खाँ को परास्त करके दक्कन में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की ।
  • निजामुल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत होने पर पुन: मराठों के खिलाफ कार्यवाही शुरू कर दी तथा चौथ देने से इनकार कर दिया । परिणाम स्वरूप 7 मार्च ,1728 में बाजीराव प्रथम ने निजामुल-मुल्क को पालखेड़ा के युद्ध में पराजित किया । युद्ध में पराजित होने पर निजामुल-मुल्क सन्धि के लिए बाध्य हुआ । बाजीराव प्रथम तथा निजामुल-मुल्क के बीच मुंशी शिवगाँव की संधि हुई ।
  • 1731 ई. डभोई के युद्ध में बाजीराव प्रथम ने त्रियम्बकराव को पराजित कर सारे प्रतिनिधियों का अन्त कर दिया ।
  • 1731 ई. में वार्ना की सन्धि द्वारा शम्भा द्वितीय ने शाहू की अधीनता स्वीकार कर ली ।
  • दिल्ली पर आक्रमण करने वाला प्रथम पेशवा बाजीराव प्रथम था , 29 मार्च 1737 ई. को दिल्ली पर धावा बोल दिया था । उस समय मुगल बादशाह मोहम्मदशाह दिल्ली छोड़ने के लिए तैयार हो गया था ।
  • 1737 ई. में मुगल बादशाह ने निजाम को मराठों के विरुद्ध भेजा । परंतु इस बार भी बाजीराव प्रथम ने भोपाल के पास निजाम को युद्ध में पराजित किया । भोपाल युद्ध के परिणाम स्वरूप 1738 ई. में दुरई-सराय की सन्धि हुई । निजाम ने संपूर्ण मालवा का प्रदेश तथा नर्मदा से चंबल के इलाके को पूरी सत्ता मराठों को सौंप दी ।
  • 1739 ई. में बेसीन विजय बाजीराव प्रथम की महान सैन्य कुशलता एवं सूझबूझ का प्रतीक थी । इस युद्ध में बाजीराव ने पुर्तगालियों से सालसीट तथा बेसीन छीन ली । यूरोपीय शक्ति के विरुद्ध यह मराठों की महानतम विजय थी ।
  • बाजीराव प्रथम को शिवाजी के बाद गोरिल्ला युद्ध का सबसे बड़ा प्रतिपादक कहा गया है ।
  • बाजीराव प्रथम ने हिंदू पादशाही का आदर्श रखा । यद्यपि बालाजी बाजीराव ने इसे खत्म कर दिया ।
  • बाजीराव प्रथम मस्तानी नामक महिला से संबंध होने के कारण चर्चित रहा था ।
  • 1740 ई. में बाजीराव प्रथम की मृत्यु हो गई ।

बालाजी बाजीराव ( 1740-1761 ई.)

  • बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बालाजी बाजीराव (नाना साहब के नाम से प्रसिद्ध ) पेशवा बना ।
  • 15 दिसंबर 1749 को शाहूजी का निधन हो गया । उनके कोई संतान नहीं थी । अपनी मृत्यु के पूर्व ताराबाई के पौत्र राजाराम द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया ।
  • 1750 ई. में रघुजी भोसले की मध्यस्थता के कारण राजाराम तथा पेशवा के बीच संगोला की सन्धि हुई । इस संधि के द्वारा मराठा छत्रपति केवल नाम मात्र का राजा रह गया । मराठा शासन का वास्तविक नेता पेशवा (वंशानुगत) बन गया तथा मराठा राजनीति का केंद्र पूना हो गया ।
  • 1752 ई. में झलकी की सन्धि में निजाम ने मराठों को बरार का आधा क्षेत्र दे दिया ।
  • 1754 ई. में मराठे रघुनाथ राव के नेतृत्व में दिल्ली पहुंचे और वजीर गाजीउद्दीन की सहायता करते हुए उन्होंने अहमदशाह को सिंहासन से हटाकर आलमगीर द्वितीय को मुगल बादशाह बना दिया ।

पानीपत का तृतीय युद्ध ( 14 जनवरी,1761)

  • पानीपत का तृतीय युद्ध मुख्यत: दो कारणों का परिणाम रहा । प्रथम, नादिर शाह की भाँति अहमदशाह अब्दाली भी भारत को लूटना चाहता था । दूसरा, मराठे हिन्दू पादशाही की भावना से प्रेरित होकर दिल्ली पर प्रभाव स्थापित करना चाहते हैं ।
  • रूहेला सरदार नजीबुद्दौला तथा अवध के नवाब शुजाउद्दोला ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया ,क्योंकि यह दोनों मराठा सरदारों के हाथों हार चुके थे ।
  • इस युद्ध में पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने नाबालिग बेटे विश्वास राव के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी, किन्तु वास्तविक सेनापति उसका चचेरा भाई सदाशिव राव भाऊ था ।
  • 14 जनवरी, 1761 ईस्वी को मराठों ने आक्रमण आरंभ किया । मल्हारराव होल्कर युद्ध के बीच में ही भाग निकला । मराठा फौज के पैर पूरी तरह उखड़ गये । पेशवा का बेटा विश्वनाथराव ,जसवंत राव, सदाशिव राव भाऊ , तुंकोजी सिन्धिया और अन्य अनगिनत मराठा सेनापति करीब 28000 सैनिकों के साथ मारे गए ।
  • जे. एन. सरकार ने लिखा है “महाराष्ट्र में सम्भवत: ही कोई ऐसा परिवार होगा जिसने कोई ना कोई संबंधी न खोया हो तथा कुछ परिवारों का तो सर्वनाश ही हो गया ।”
  • पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी काशीराज पंडित के शब्दों में “पानीपत का तृतीय युद्ध मराठों के लिए प्रलयकारी सिद्ध हुआ ।”
  • पानीपत के तृतीय युद्ध के बाद नजीबुद्दोला , अब्दाली के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली पर शासन किया ।
  • पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों को एकमात्र मुगल वजीर इमाद-उल-मुल्क का समर्थन प्राप्त था ।
  • पानीपत के युद्ध 1761 में मराठों के पराजय की सूचना बालाजी बाजीराव को एक व्यापारी द्वारा कूट संदेश के रूप में पहुंचाई गई , जिसमें कहा गया कि ,” दो मोती विलीन हो गये, बाइस सोने की मुहरें लुप्त हो गई और चाँदी तथा तांबे की तो पूरी गणना ही नहीं की जा सकती ।”
  • पानीपत के तृतीय युद्ध की हार को नहीं सह पाने के कारण बालाजी बाजीराव की मृत्यु 1761 में हो गई ।

माधवराव नारायण प्रथम ( 1761- 1772 ई.)

  • पानीपत के युद्ध में मराठों की हार तथा बालाजी बाजीराव की अकस्मात् मृत्यु के बाद उसका पुत्र माधवराव नारायण प्रथम पेशवा बना । इसने मराठों की खोयी हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया ।
  • 1763 ई. में राक्षस-भुवन की सन्धि माधवराव प्रथम तथा निजाम के बीच हुई । इस संधि का मराठा इतिहास में इसलिए महत्व है क्योंकि इस सन्धि से मराठों तथा निजाम के संबंधों में ठहराव आ गया ।
  • माधवराव प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी की पेंशन पर रह रहे मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय को पुन: दिल्ली की गद्दी पर बिठाया । मुगल बादशाह अब मराठों का पेंशनभोगी बन गया ।
  • पेशवा माधवराव नारायण प्रथम की हत्या 1772 ई. में उसके चाचा रघुनाथ राव के द्वारा कर दी गई ।

माधवराव नारायण द्वितीय ( 1774- 1796 ई.)

  • 1774 ई. में माधवराव प्रथम की हत्या के बाद बारहभाई परिषद् ने उसके पुत्र माधवराव नारायण द्वितीय को पेशवा बनाया ।
  • पेशवा माधवराव नारायण द्वितीय अल्पायु के कारण मराठा राज्य की देखरेख बारहभाई सभा नाम की 12 सदस्यों की एक परिषद करती थी । इस परिषद् के दो महत्वपूर्ण सदस्य थे – महादजी सिंधिया और नाना फड़नबीस
  • नाना फड़नबीस का मूल नाम बालाजी जनार्दन भानु था । अंग्रेज जेम्स ग्रांट डफ ने इन्हें मराठों का मैकियावेली कहा था ।
  • पेशवा माधवराव नारायण द्वितीय के शासनकाल में प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ ।

बाजीराव द्वितीय ( 1796-1818 ई.)

  • माधव राव नारायण द्वितीय की मृत्यु के पश्चात राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना । यह अंतिम पेशवा था ।
  • बाजीराव द्वितीय ,अंग्रेजों की सहायता से पेशवा बना था । मराठों के पतन में सर्वाधिक योगदान इसी का था । यह सहायक संधि स्वीकार करने वाला प्रथम मराठा सरदार था ।
  • इसके शासनकाल में द्वितीय व तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुए ।
  • पेशवा बाजीराव द्वितीय ने कोरेगाँव एवं अष्टी के युद्ध में हारने के बाद फरवरी,1818 ई. में मेल्कम के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया । अंग्रेजों ने पेशवा के पद को समाप्त कर बाजीराव द्वितीय को पुणे से हटाकर कानपुर के निकट बिठूर में पेंशन पर जीने के लिए भेज दिया , जहाँ 1853 ई. में इसकी मृत्यु हो गई ।

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